उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो उससे पूछा जाये। मुझे वह पूछेगा तो मैं मदद लेने से मना कर दूँगी। पहले जिस किसी ने भी मदद दी है, बिना किसी शर्त के दी है। भाभी बता रही हैं कि भाभी के पिताजी ने भी अपने लड़के से किसी प्रकार की शर्त नहीं की।’’
‘‘तीन दिन हुए मुझे वह मिले थे और कह रहे थे कि उनके पिताजी मुझसे उनके मिलने आने के कारण सख्त नाराज हैं।
‘‘इस पर भी आज उन्होंने इतनी बड़ी रकम दे दी है।’’
‘‘मगर तुम्हारे अब्बाजान उस मिट्टी के घड़े हुए नहीं हैं। वह तो दीनदार हैं।’’
‘‘और अम्मी! तुम क्या हो?’’
‘‘मैं हवा में लटक रही हूँ। आप लोगों की बात सुन मुसलमान नहीं रही। मगर मन कहता है कि तुम्हारे अब्बाजान की बीवी को उनके मजहब में ही रहना चाहिए।’’
‘‘तो मजहब कोई मकान है जो बीवी को अपने खाविन्द के मकान में ही रहना चाहिए?’’
सब हँसने लगीं। उत्तर सालिहा ने दिया, ‘‘कुछ भी समझो। खाविन्द बीवी का मजहब एक-दूसरे से मुख्तलिफ नहीं होना चाहिए।’’
‘‘अम्मी! मज़हब दिमागी और रुहानी बात है और खाविन्द जिस्मानी बात है।’’
बात प्रज्ञा ने बदल दी। उसने कह दिया, ‘‘अम्मी! अगर आपको पता चले कि अब्बाजान आये हैं तो उनको इस घर पर आ इस गरीबखाने में खाना लेने का दावतनामा दे दीजियेगा।’’
‘‘यह तुम खुद ही उन्हें देना। मैं दूँगी तो दो-चार जली-कटी सुना देंगे।’’
‘‘तो यहाँ की रोटी से दुश्मनी है, आपसे नहीं?’’
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