उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘नाराजगी तो तुमसे है और तुम्हारे घर वालों से है, मुझसे नहीं।’’
‘‘और मैं तो अम्मी को कह रही हूँ कि आप अपने घर पर दावत दे दें। मैं अपने घर बुलाने के लिए नहीं कह रही।’’
‘‘तो यह घर मेरा है?’’
‘‘इतना ही आपका है, जितना बम्बई वाला घर। वह खाविन्द का है तो यह लड़के का है।’’
‘‘मगर ज्ञान मेरे पेट से पैदा नहीं हुआ?’’
‘‘इस पर भी वह आपकी इज्जत वैसे ही करते हैं जैसे अपनी अम्मी की करते हैं।’’
‘‘यह उसकी शराफत है।’’
‘‘तो अम्मी! तुम भी शरीफ बन जाओ।’’ हँसते हुए कमला ने कह दिया।
‘‘चुप रहो। सब तुम्हारी वजह से ही हो रहा है, नहीं तो मुझे छः महीने तक खाविन्द से जुदा न रहना पड़ता।’’
‘‘मगर अम्मी! तुमको मना किसने किया है?’’
‘‘तुम्हारे अब्बाजान ने और तुम्हारी खातिर ही। अगर तुम बम्बई चलने के लिये तैयार हो जाओ तो फिर मैं भी अपने खाविन्द के घर में जा पहुँचूँगी।’’
‘‘मगर अम्मी! जानती हो, मैं वहाँ क्यों नहीं जाती?’’
‘‘क्यों नहीं जाती? जहाँ तक मुझे समझ आया है तुम प्रज्ञा के दोनों भाइयों के इश्क में फँसी हुई हो। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि तुम दोनों की बीवी एकदम बनोगी।’’
‘‘नहीं अम्मी! यह नहीं हो सकता और सुन लो, मैं बम्बई नहीं जा रही तो इस लगाव के कारण नहीं। मेरे वहाँ जाने और इस लगाव में कोई ताल्लुक नहीं।’’
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