उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मगर उसका सहायक दोनों मूर्ख भाइयों में झगड़ा कराना भी तो हो सकता है।’’
‘‘जी!’’ प्रज्ञा ने कहा, ‘‘परन्तु मैं उसे इतना मूर्ख नहीं समझती। कम-से-कम उसका वर्तमान व्यवहार इस प्रकार की मूर्खता वाला नहीं प्रतीत होता।’’
‘‘यह ठीक है कि संसार में मूर्खों की कमी नहीं है। अतः मेरा विचार है कि शिव का सुखी अथवा दुःखी होना, उन मूर्खों की भीड़ पर निर्भर नहीं करता जो इस नगर में रह रहे हैं वरन् इसकी अपनी बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है।’’
‘‘अम्मी सालिहा हों अथवा कोई दूसरी हों, वह तब तक शिव को किसी अमल पर लगा नहीं सकेंगी जब तक यह स्वयं वही व्यवहार करने को तैयार न हो।’’
अब रविशंकर ने कह दिया, ‘‘यदि तुम सब लोग इसके इस काम में सहायक हो रहे हो तो मैंने भी इसमें सम्मिलित होने का निश्चय किया है। मैं यह घोषणा करता हूँ कि आज से दुकान खुलने तक जितना खर्चा होगा, वह मैं करूँगा।’’
‘‘शिव!’’ प्रज्ञा ने कह दिया, ‘‘पिताजी के चरण-स्पर्श कर, इनका धन्यवाद करो।’’
शिव तो पहले ही यह सजदा करने के लिए तैयार खड़ा था। उसने पिताजी के चरण-स्पर्श कर रहा, ‘‘परन्तु पिताजी! यह उस धन के लिए नहीं जो आप दे रहे हैं। यह तो आपका मेरे इस काम को आशीर्वाद देने के लिए है।’’
‘‘शिव! तुम घर पर आओगे तो अपनी सहायता की पहली किस्त दूँगा और तुम उसके खर्चे का वृत्तान्त बताओगे तो फिर और दूँगा।’’
सब वापस ग्रेटर कैलाश को चल दिए।
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