उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो कहाँ बात करेंगे?’’
‘‘अभी, यहाँ ही बात करूँगा।’’
‘‘तो उसे बुलाऊँ?’’
‘‘हाँ! और यदि चाहो तो बहिन और बहनोई को भी बुला लेना।’’
बढ़ई भूमि पर बैठा फर्नीचर का नक्शा देख-देख सामान का अनुमान लगाता हुआ लिख रहा था और प्रज्ञा, ज्ञानस्वरूप तथा उमाशंकर एक कोने में खड़े परस्पर विचार कर रहे थे कि किस प्रकार शिव की दुकान को विख्यात किया जाये।
रविशंकर तथा शिव दुकान के पीछे के भाग में खड़े बातचीत कर रहे थे। शिव सब को बुलाकर पिताजी के पास ले आया।
रविशंकर ने कहा, ‘‘मुझे शिव ने बताया है कि इस दुकान के लिए सबसे अधिक सहायता ज्ञानस्वरूप और उमाशंकर ने दी है। आपने इसे सहायता किस आशा में दी है?’’
उत्तर ज्ञानस्वरूप ने दिया, ‘‘पिताजी! यह प्रज्ञा का भाई है और इसे फलता-फूलता देख हमें प्रसन्नता होनी चाहिये। बस, इस प्रसन्नता की आशा में हम इसको सहायता दे रहे हैं।’’
‘‘मगर इसके मस्तिष्क में अपनी पढ़ाई को अधूरा छोड़ इस व्यवसाय में कूद पड़ने का एक उद्देश्य है।’’
अब प्रज्ञा ने बातों में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘पिताजी! यह हम जानते हैं परन्तु उस उद्देश्य में तटस्थ हैं।’’
‘‘मुझे कुछ सन्देह हो रहा है कि शिव के पूर्ण प्रयास को कमला की अम्मी उत्साहित कर रही है?’’
‘‘यह हमें विदित नहीं।’’ ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘परन्तु यदि यह सत्य भी हो तो उसका इसमें शिव को उत्साह देना सराहनीय ही है।’’
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