उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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अगले दिन उमाशंकर अपनी मोटर में माता-पिता तथा शिव को लेकर अन्सारी रोड वाली दुकान पर पहुँचा। दुकान देखने के लिए प्रज्ञा और ज्ञानस्वरूप पहले ही पहुँचे हुए थे।
बढ़ई वहाँ आया हुआ था। दुकान खोलकर देखी गई और उसकी स्थित, अवस्था और आस-पड़ोस देखा गया। सबने पसन्द किया।
बढ़ई को फर्नीचर बनाने के लिए नक्शा दे दिया गया तो वह बैठकर लकड़ी और सामान का अनुमान लगाने लगा।
शिव पिताजी को पृथक् में ले जाकर फर्नीचर पर व्यय होने वाला अनुमानित धन बता रहा था। उसने कहा, ‘‘आजकल महँगाई के कारण इस दुकान को सूरत-शक्ल देने में बीस हजार के लगभग लग जायेगा।’’
‘‘और तुम्हारे पास जेब में क्या है?’’
‘‘जीजाजी ने अभी पाँच हजार दिया है। उन्होंने पगड़ी की रकम में एक हज़ार पृथक् दिया था।’’
‘‘यह सब ऋण उतारोगे कैसे? दुकान को मशहूर होने में चार-पाँच वर्ष लग जायेंगे।’’
‘‘पिताजी! यह ऋण नहीं है। किसी भी मित्र ने तथा सम्बन्धी ने जो सहायता दी है, वह ऋण कह कर नहीं दी। इस पर भी मेरी एक योजना है, जिससे मैं इस सहायता का प्रतिकार दूँगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘आप इस सहायता में सम्मिलित हो जाइये तो आपको भी उस प्रतिकार में भागीदार बना लूँगा।’’
‘‘मैं कुछ ऐसा विचार कर रहा हूँ कि दुकान के फर्नीचर का सब खर्च मैं दूँ। इस पर भी अन्तिम निर्णय तुमसे और उमा से एक बात करने के उपरान्त बताऊँगा।’
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