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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मगर अब्बाजान! आपको क्या मिलेगा?’’

‘‘इसी से कहता हूँ कि तुम अंग्रेजी पढ़े-लिखे उलटी खोपड़ी रखते हो।’’

मुहम्मद यासीन मुस्कराता हुआ चुप कर रहा। इसी समय नगीना अपने भाई-बहनों के साथ डॉ. उमाशंकर को घेरे हुए उससे अमरीका के विषय में पूछ रही थी। सबसे अधिक पूछने वाली नगीना ही थी।

उसने पूछा था, ‘‘सुना है, वहाँ सब औरत-मर्द गोरे रंग के हैं?’’

‘‘नहीं! उस मुल्क में हबशी आबनूस की भाँति काले रंग के लोग भी रहते हैं।’’

‘‘मगर वह तो गुलाम कौम है?’’

‘‘नहीं। अब अमरीका में सब लोग बराबर हक-हकूक रखते हैं। गोरे लोग उनसे नफरत तो करते हैं, इस पर भी सरकार की ओर से उनके साथ अन्य सब के बराबर सलूक किया जाता है।’’

‘‘मगर जो भी यहाँ का नौजवान वहाँ जाता है, वहाँ की गोरी लड़की को ही विवाह कर लाता है। कोई नीग्रो या रैड-इण्डियन से विवाह नहीं कर लाता?’’

‘‘रैड-इण्डियन तो तादाद में बहुत कम हैं। साथ ही नीग्रो लोगों के नाक चपटे होते हैं और चपटी नाक हिन्दुस्तान के लोगों को पसन्द नहीं।’’

‘‘तो यह नाक की वजह से शादी की जाती है क्या?’’

सब बच्चे हँसने लगे। इस पर उमाशंकर ने कह दिया, ‘‘औरतों और मर्दों की खूबसूरती उनकी खाल के रंग की वजह से नहीं होती यह उनके मुख और जिस्म के नख्श की वजह सो होती है। अब हम किसी को देखते हैं तो सबसे पहले उसका मुख और उसमें भी उसकी नाक देखते हैं और अगर नाक बदसूरत हो तो सब-कुछ ही बदसूरत समझा जाता है।’’

‘‘मगर,’’ नगीना ने कह दिया, ‘‘नख्श के साथ रंग भी तो सोने पर सुहागा नहीं जो जाता क्या?’’

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