उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘यह तुम लोगों में क्या फ़ुतुर समा रहा है। प्रज्ञा ने पूछे बिना विवाह कर लिया था और तुम बिना बताये कारोबार करने लगे हो?’’
‘‘पिताजी! मैं भी तो यह विवाह की तैयार में ही कर रहा हूँ।’’
‘‘तो वह मान गई है?’’
‘‘मानी तो नहीं। यह सब-कुछ उसे मनाने के लिए ही है।’’
‘‘मैंने अपने जिस-जिस मित्र को वस्तुस्थित का वर्णन किया और उससे इस कार्य में सहायता माँगी, उसने मेरी सहायता कर दी।
‘‘मैं यही आपसे आशा कर रहा हूँ।’’
‘‘मगर यदि मैं इस कार्य में तुम्हारी सहायता करूँ तो एक लड़के से अन्याय करने वाला हो जाऊँगा। मैं तुम दोनों के इस बीवी सम्बन्धी विवाद में निष्पक्ष रहना चाहता हूँ।’’
‘‘तो आप दादा की भी सहायता कर दीजिए।’’
‘‘परन्तु वह मेरी सहायता माँगता नहीं। उसने अमेरिका में पाँच वर्ष तक मेहनत-मजदूरी कर जहाँ वहाँ की पढ़ाई का खर्च दिया है, वहाँ यहाँ क्लीनिक चलाने के लिए भी जमा किया है।’’
‘‘मगर पिताजी, यह अमेरिका है नहीं। यहाँ तो समाजवाद है। समाजवाद में भूखमरी रहती है। यहाँ दादा वाला उपाय नहीं चल सकता। इस कारण मैंने मित्रता का आश्रय ले दादा को पराजित करने का उपाय किया है।’’
‘‘मगर मैं इसमें सहायता नहीं दूँगा। इसका अर्थ होगा एक लड़के की नाज़ायज़ हरकत में मददगार बन जाऊँ।’’
‘‘पिताजी! मेरी यह कोशिश नाजायज़ कैसे होगी? दादा तो इसको जायज़ ही कहते हैं।’’
‘‘क्या कहता है?’’
‘‘यही कि हम भाई-भाई जरूर हैं, मगर कमला ऐसा पुरस्कार है कि उसके लिए अपनी-अपनी किस्मत आजमाई करने का हक रखते हैं।’’
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