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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘कमला का कहना था कि उसकी यह मनोवृत्ति उसको अपनी दृष्टि में हीन सिद्ध कर रही है, परन्तु जब भी छोटा भाई आता है तो उसकी स्पष्ट और दृढ़ बातों को सुन वह उसे ऊँचे अंक देने लगती है।’’

समय व्यतीत हो रहा था कि एक दिन शिवशंकर सायंकाल चाय के समय पिताजी से कहने लगा, ‘‘पिताजी! आप मेरे कारोबार में मेरी कितनी सहायता कर सकेंगे?’’

‘‘किस कारोबार में?’’

‘‘मैंने अंसारी रोड पर एक दुकान भाड़े पर ले ली है।’’

‘‘ओह!’’ रविशंकर के मुख से निकल गया, ‘‘कहाँ? अंसारी रोड पर? कितने भाड़े पर ली है?’’

‘‘तीन सौ रुपये महीना भाड़ा और पचास हजार की पगड़ी देकर एक पाँच सौ वर्ग-फीट जगह ली है।’’

‘‘और यह रुपया कहाँ से आया है?’’

‘‘मेरी मित्र मण्डली बहुत लम्बी-चौड़ी है। मैंने पचास मित्र ठूँढ़े हैं और उनसे एक-एक हजार रुपये की सहायता प्राप्त कर ली है। दो दिन हुए मैं पचास हज़ार नकद पगड़ी की रकम देकर लिखत-पढ़त कर आया हूँ, मगर दुकान में पूँजी के लिए आपसे पूछ रहा हूँ।’’

रविशंकर यह एक-एक हजार की बात सुन भौंचक्क शिव का मुख देखता रह गया। शिव मुस्करा रहा था। पिता के मुख पर अविश्वास की झलक देख उसने कहा, ‘‘पिताजी! कल मैं बढ़ईयों को वहाँ का फर्नीचर बनवाने के लिए ले जा रहा हूँ। यदि आप भी चलकर कुछ सुझाव दे सकें तो बहुत ही आभारी रहूँगा।’’

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