उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
बात तो प्रज्ञा और शिव कर रहे थे और प्रभाव हो रहा था दोनों अम्मियों पर। वे बहू के मुख पर आश्चर्य में देख रही थीं।
चाय समाप्त हुई तो शिवशंकर बहिन को नमस्ते कह चला गया।
‘‘यह क्या कह गया है?’’ सालिहा ने कहा।
‘‘उसने जाते हुए मुझे अपनी जबान में सलाम कही है।’’
‘‘जरा बोलकर बताओ, क्या कहा है उसने?’’
‘‘उसने कहा है ‘‘दीदी नमस्ते’। इसका मतलब है–दीदी! मैं तुम्हारा आदर करता हूँ।’’
कमला से बात तो चाय के बाद ही हुई। आज वीणा बजाने वाला मास्टर नहीं आया था। वह रविवार के दिन छुट्टी किया करता था।
इस कारण जब ज्ञानस्वरूप और प्रज्ञा उठने लगे तो प्रज्ञा ने कमला से कहा, ‘‘कमला! जरा इधर आओ।’’
वह उठकर भाई और भाभी के पीछे-पीछे उनके कमरे में चली गई। उसे बैठा प्रज्ञा ने पूछा, ‘‘यह शिव क्या कह रहा था तुम जानती हो?’’
‘‘भाभी! पिछली बार जब मैं आपकी माताजी के घर गयी थी तो इन्होंने मुझे कहा था कि यह चाहते हैं कि मैं इनसे शादी स्वीकार कर लूँ।’’
‘‘इस पर मैंने बताया कि मैं तो इनके बड़े भाई के पास बुक हूँ।’’
‘‘उस दिन तो यह चुप कर रहे, परन्तु आज कह रहे थे कि इनके भाईसाहब ने कहा है कि मैं आजाद इन्सान हूँ, इसलिए कोई बुकिंग नहीं। जब तक विवाह नहीं हो जाता, यह प्रबन्ध बदला भी जा सकता है। इससे उत्साहित हो आपके छोटे भाई मुझे अपने फैसले पर पुनरावलोकन करने के लिए कहने आए थे।’’
‘‘ठीक। अब तुम बताओ कि तुम्हारे मन में क्या है और तुम क्या चाहती हो?’’
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