उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अभी तो तुमसे बताया है कि अपने आप कुछ होती नहीं। यह प्रकृति का नियम है।’’
‘‘और फिर मैं पूछती हूँ कि कौन इन ग्रहों को ऐसे घुमा रहा है कि ये आपस में टकराते नहीं। इसीलिए तो कहती हूँ कि इस प्रकृति, जिसे तुम नेचर कहते हो, से बलशाली और ज्ञानवान् कोई ताकत है जो इनको घुमा रही है और ऐसे घुमा रही है कि मानो किसी बहुत ही कारीगरी से तैल दी हुई मशीन हो।’’
‘‘यह हमें नहीं पता कि यह ताकत कहाँ से आई है, मगर यह है।’’
‘‘तो सुनो शिव! बिना एक चेतन-शक्ति को सब स्थान पर माने तुम कुछ भी समझ और समझा नहीं सकते।’’
‘‘परन्तु यह सीधा प्रमाण नहीं, यह उल्टा प्रमाण कहा जा सकता है?’’
‘‘यह सीधा और उल्टा तो आराम से बैठकर समझा जा सकता है। यह अभी समझ लो कि कोई है जो इस जगत् को बनाता है, चलाता है और फिर एक दिन तोड़-फोड़ देगा।’’
शिव मुख देखता रह गया। इस पर प्रज्ञा ने एक बात और कह दी, ‘‘जो परमात्मा के ऐसे गुणों को जाने-समझे बिना परमात्मा को मानता है, वह उस नादान की भाँति है जो हाथ में हीरा पकड़े हुए उसके गुणों को नहीं जानता और फिर उसे काँच का टुकड़ा समझ फेंक देता है।’’
‘‘यही बात उन सब लोगों की होती है जो परमात्मा का अस्तित्व केवल श्रद्धावश मानते हैं। जब उनको कोई कहता है कि परमात्मा दिखाई नहीं देता तो नादान व्यक्ति की भाँति हीरे को काँच समझ फेंक देते हैं।’’
शिव को समझ आने लगा था कि क्यों उसका पिता परमात्मा पर विश्वास छोड़ बैठा था।
बहन-भाई में यह युक्ति-प्रतियुक्ति होती सालिहा भी सुन रही थी। वह विचार करने लगी कि यही मतलब है जब कमला अब्बाजान को कहती है कि वह खुदापरस्त नहीं हैं। वह लड़की का कत्ल करने चला आया था। वह समझ रहा था कि कोई देखने वाला नहीं है। हकीकत में वह खुदा को मानता ही नहीं। झूठ-मूठ ही कह रहा है कि वह खुदा-दोस्त है।
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