उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘हाँ! तभी मैं विज्ञान की पुस्तकें पढ़कर भी परमात्मा को अमान्य नहीं करती। सुनो! तुम जैसे ज़ाहिलों की भाषा में ही बताती हूँ।’’
‘‘पर दीदी! मैं ज़ाहिल नहीं हूँ?’’
‘‘मैंने तुम्हें ज़ाहिल नहीं कहा। मगर जो भाषा तुम पढ़े हो, उस भाषा के मालिक ज़ाहिल हैं। सुनो–‘गॉड इज़ ऑल प्रिवेडिंग इन्टेलिजेण्ट इनर्जी’ (परमात्मा एक सर्वव्यापक चेतन-शक्ति है)।’’
‘‘पर दीदी! शक्ति (इनर्जी) कभी भी इन्टेलिजेण्ट नहीं होती?’’
‘‘मगर यह है। दुनिया में उसके समान और कोई नहीं। इसी कारण उसे लासानी अद्वितीय कहते हैं।’’
‘‘यह सिद्ध करना पड़ेगा कि वह ‘इन्टेलिजेण्ट चेतन है।’’
‘‘हाँ! यह बहुत ही सरल उपाय से किया जा सकता है। तुम तो साइंस पढ़ते हो। भला बताओ, न्यूटन का, गति का प्रथम नियम क्या है?’’
एक क्षण तक शिव ने स्मरण किया और फिर बता दिया। उसने बताया, ‘‘नियम यह है कि प्रकृति का कोई भी अंश यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहता है और यदि चल रहा है तो एक स्थिर गति से सीधी रेखा में चलता ही रहता है।’’
‘‘और यह बताओ कि पृथ्वी चल रही है न?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘परन्तु सीधी रेखा में नहीं चल रही। इसका अर्थ है कि कोई इसे प्रतिक्षण सीधी रेखा से मोड़ रहा है।’’
‘‘हाँ! वह एक अन्य शक्ति है।’’
‘‘मगर दोनो का संयोग कौन करता है?’’
‘‘अपने आप होता है।’’
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