उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अच्छा? तब ठीक है। चाय पियो और यहाँ से भागो। मैं कल माताजी से मिलने आऊँगी।’’
‘‘हाँ! माताजी भी तुमसे मिलने की इच्छा कर रही थीं। वह तुम्हारे इस कथन का अर्थ जानने का यत्न कर रही हैं कि मांस खाने से तुम्हारे मस्तिष्क के द्वार खुल गये हैं। यह तुमने एक दिन मुझे बताया था।’’
‘‘तो तुमने यह बात माताजी तथा पिताजी से कह दी है?’’
‘‘यही बात तो थी जिसने मेरे मस्तिष्क में हलचल मचा रखी थी।’’
‘‘पिताजी तो इससे नाराज हो रहे होंगे?’’
‘‘यह तो नहीं कह सकता कि वह नाराज हुए हैं। हाँ, वह यह कह रहे थे कि उनका विश्वास परमात्मा से उठता जा रहा है।’’
‘‘यह पिताजी का दोष नहीं। यह दोष है परमात्मा पर बिना उसके विषय में जाने विश्वास करने का।’’
‘‘हाथ में पकड़े टुकड़े को, बिना हीरे की पहचान के किसी के कहने पर हीरा मान लेने वालों के साथ यही होता है। जब कोई अन्य यह कहे कि उसके हाथ में हीरा नहीं, बिल्लौर का टुकड़ा है तो हीरे के गुणों को न जानने वाला व्यक्ति हीरा फेंक देता है। यही बात यूरोप में ईसाइयों के साथ हो रही है। यही हिन्दू-मुसलमान दोनों के साथ हो रही है। दोनों परमात्मा को मानते हैं, मगर दोनों में से कोई भी परमात्मा के गुण नहीं जानता। इस कारण किसी को यह समझाने पर कि जिसे वह मानता है, वह परमात्मा है ही नहीं, वह परमात्मा को इस प्रकार फेंक देता है जैसे कोई नादान हीरे को फेंक देता है।’’
‘‘परमात्मा पर उस व्यक्ति का विश्वास कभी भी नहीं हट सकता, जो परमात्मा के वास्तविक रूप को जानता है।’’
‘‘तो दीदी! तुम परमात्मा के वास्तविक रूप को जानती हो?’’
|