उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
कमला इन सब के प्यालों में चाय बनाने लगी थी। वह चाय बनाती हुई मन में विचार करने लगी थी कि क्या भाभी को इस युवक के इस कोठी में पहुँचने का यथार्थ कारण विदित है? क्या वह इस विषय में इसे उत्साहित कर रही है? क्या भाभी छोटे भाई को बड़े पर तरजीह देती है?
इस प्रकार के प्रश्न उसके मन में उठ रहे थे। इस समय प्रज्ञा ने शिव से माता-पिता के विषय में पूछना आरम्भ कर दिया, ‘‘माताजी कैसी हैं?’’
‘‘बहुत प्रसन्न और सन्तुष्ट प्रतीत होती हैं।’’
‘‘और पिताजी?’’
‘‘सदा की भाँति इस रिटायर्ड जीवन को किसी काम से भरने के लिए किसी-न-किसी से झगड़ते रहते हैं।’’
प्रज्ञा मुस्कराती हुई पूछती गयी, ‘‘और तुम अपने इन खाली दिनों को पूरा करने के लिए आवारागर्दी कर रहे हो?’’
‘‘नहीं दीदी! ऐसी बात नहीं। आवारागर्दी तो तब होती है जब घूमा-फिरा जाये बिना किसी मतलब के अथवा किसी बुरे मतलब के लिए।’’
‘‘मेरा घूमना न तो बे-मतलब है न ही किसी बुरे उद्देश्य से है।’’
इस समय कमला ने प्याला शिल के सम्मुख करते हुए कहा, ‘‘भाभी! इनके यहाँ आने का मतलब मैं बताऊँगी।’’
‘‘तो तुम जानती हो?’’
‘‘केवल उतना ही जितना इन्होंने बताया है।’’
‘‘हाँ, दीदी!’’ शिव ने कमला के कथन का समर्थन करते हुए कह दिया, ‘‘यह बतायेंगी तो भली-भाँति समझा सकेंगी।’’
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