उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैंने उनसे पूछा है और उनका कहना है कि आप रेल में अथवा हवाई जहाज में कोई सीट तो हैं नहीं जो कुछ दाम देकर बुक कराई जा सकती हैं। आप चलती हुई एक खुदमुख्तार रूह हैं।’’
‘‘इससे उत्साहित हो आपसे पुनः मिलने की इच्छा उत्पन्न हुई है।’’
‘‘मतलब यह है कि यदि आपके भाई साहब का कहना ठीक है कि उन्होंने मेरी बुकिंग नहीं की तो आप करवाने का यत्न कर रहे हैं?’’
‘‘हाँ! आप ठीक समझी हैं।’’
‘‘मगर मेरी सीट जिस रेलगाड़ी अथवा हवाई जहाज में है, उसकी मैनेजर हैं आपकी बहिन प्रज्ञा। इससे जगह आरक्षण के लिए वहीं जाना चाहिये।’’
‘‘इसीलिए तो उनके विषय में पूछ रहा था। लक्ष्य तो आप हैं, परन्तु दीदी से बात करने आया था।’’
‘‘वह तो घर पर हैं नहीं। आप फिर किसी दिन तकलीफ करियेगा।’’
‘‘तो कष्ट के लिए क्षमा करें। मैं फिर किसी दिन आऊँगा।’’
शिव वहीं बरामदे से ही बाहर को चल पड़ा और कमला मन में एक प्रकार का उल्लास अनुभव करती हुई ड्राइंगरूम को चल पड़ी।
वह मन में यह अनुभव करने लगी थी कि आखिर उसमें कुछ है जिससे खूबसूरत और पढ़े-लिखे दोनों भाई उस पर लट्टू हो रहे हैं। उसे उमाशंकर की बात याद आ गई थी जो उसने पहली दावत के अवसर पर कही थी। उसने कहा था–उसके मुख पर एक अद्भुत तेज है, जिसका अर्थ वह खुदाई नूर समझी थी।
ड्राइंगरूम में वह आयी तो उसकी अम्मी ने पूछा, ‘‘कौन था?’’
‘‘भाभीजान का छोटा भाई था। बहिन से मिलने आया था।’’
‘‘क्यों मिलने आया था?’’ सालिहा का अगला प्रश्न था।
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