उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
सालिहा कुछ जवाब नहीं दे सकी। इस पर प्रज्ञा ने पुनः कहा, ‘‘मगर अम्मी, खुदा भी रहम का खजाना है। वह ऐसा कुछ नहीं करता जो हमें तकलीफ देने वाला हो। इसलिए मैं तो यह समझती हूँ कि मौत सिर्फ इस जिस्म की कैद से छुटकारा दिलाने के लिए आती है। इसके बाद हमारी रूह किसी दूसरे जिस्म में जो माँ के रहम में बन रहा होता है, चली जाती है।’’
‘‘इसलिए कब्र में कीड़े-मकौ़ड़ों के चाटने की रूह को फिक्र नहीं होती।’’
सालिहा अपनी चाय समाप्त कर चुकी थी। वह बाथरूम जाने के लिए चली गई।
उसके चले जाने पर ज्ञानस्वरूप हँसकर अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘यह तुमने एक मुसीबत खड़ी कर दी है।’’
‘‘जी नहीं। मैंने इनके दिमाग को एक राह पर डाल दिया है। पहले अम्मी हैवानों की तरह खाने-पीने में ही संतोष करती थीं। अब यह मनुष्यों की भाँति अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगी है। मैं इससे खुश हूँ। हमारी यह अम्मी भी अगर इस पथ पर चलती रहीं तो शीघ्र उन्नति के मार्ग पर चल पड़ेगी।’’
हैवानी की बात सुन कमला हँस पड़ी थी। उसने कहा, ‘‘परसों रात जब यह मेरे कमरे में आयी थीं और मेरे साथ पलंग पर लेटी थीं तो ठीक कुछ वैसा ही कर रही थीं जो हैवान करते देखे जाते हैं। इसी से घबराकर मैं इनके पास से उठ कुर्सी पर जा बैठी थी।’’
‘‘मगर कमला! वह तो अक्ल के प्रयोग से एक ही दिन में उस हालत में आगे निकल गई है। रात इनको अब्बाजान याद नहीं आते रहे बल्कि अपना भविष्य नजर आने लगा था। ये बहुत अच्छे लक्षण हैं।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि अम्मी एक दिशा में चल पड़ी हैं। अब मंजिल दूर नहीं। चलने वाले वहाँ पहुँचते ही हैं।’’
सब बैठे हँसने लगे। ज्ञानस्वरूप ने अल्पाहार समाप्त किया और दुकान की ओर चल पड़ा।
|