उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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जब सालिहा स्नानादि से फारिग हो अल्पाहार के लिए खाने के कमरे में आयी, कमला अपनी वीणा पर अभ्यास कर रही थी। सालिहा को आज वीणा पहले दिन से अधिक आकर्षक समझ आने लगी। पहले दिन वह वीणा की झनन-झन पसन्द न कर उठ सरस्वती के पास चली गई थी। आज उसका चित्त उसके पास बैठ सुनने को करने लगा था।
उसने जल्दी में नाश्ता समाप्त किया और हाथ धो कमला के कमरे में उसके समीप जा बैठी।
आज कमला वीणा बजाने के साथ-साथ गाना भी गा रही थी। कुछ देर बजाकर उसने उन्हीं स्वरों में, जिसमें वह वीणा बजा रही थी, गाना आरम्भ किया, ‘‘मन के नैना रे।’’
इस पद को उसने पाँच-छः बार गाया और फिर झनन-झनन वीणा बजाने लगी। कमला ने देखा कि उसकी अम्मी उसके सामने चुपचाप आकर बैठ गई हैं। इस पर भी वह बजाती रही। यह राज असावरी था। कुछ देर तक वीणा बजाकर उसने पुनः गाया–‘‘मन के नैना रे! चल पिया के ठौर।’’
बस गाने के ये दो ही पद थे। उसने वीणा पर असावरी स्वरों के कई जोड़ और अलाप निकाले और उन स्वरों में ही वह इस पद को गाती रही।
आधे घण्टे में कमला ने भिन्न-भिन्न स्वरों में ये दो ही पद गाए, इस पर भी सालिहा को बदमजा मालूम नहीं हुआ। उसे पदों के बदलते स्वरों से रस आने लगा था।
कमला को बजाते और गाते हुए एक घण्टा हो गया था। उसने अब वीणा घुटनों से उतार भूमि पर रख दी। इस पर अम्मी ने पूछा, ‘‘जो तुम गा रही थीं, उसका मतलब क्या है?’’
‘‘अम्मी! मतलब को क्या करना है? कानों को इसकी आवाज कैसी लगी है?’’
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