उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
2
ठीक साढ़े आठ बजे अल्पाहार हुआ। नौ बजे ज्ञानस्वरूप अपनी दुकान को जाने के लिए तैयार हो गया। नाश्ते के बाद ग्यारह बजे तक कमला एक पुस्तक ले पढ़ती रही और फिर साढ़े ग्यारह बजे से साढ़े बारह बजे तक वह प्रज्ञा से संस्कृत सीखने लगी। यह उसकी दैनिक दिनचर्या थी। दोपहर बाद एक बजे मध्याह्न का भोजन, तदनन्तर एक घंटा आराम और फिर ड्राइंगरूम में बैठ कुछ हाथ से सिलाई-बुनाई इत्यादि का काम करते हुए चर्चा। इस समय कमला समाचार-पत्र पढ़ करती थी तथा सामयिक बातों पर बातचीत चलती थी।
आज इस समय सालिहा भी ड्राइंगरूम में आ बैठी। एकाएक स्टेट्समैन दैनिक में एक लेख पढ़ती-पढ़ती कमला हँस पड़ी। तीनों बड़ी औरतें कमला का मुख देखती रही गयीं।
‘‘भाभी!’’ कमला ने कहा, ‘‘किसी ने यह लेख लिखा है कि इस यूनिवर्स के सितारे सब बहुत ही तेज गति से उड़ते हुए एक केन्द्रीय स्थान से बाहर को भागे जा रहे हैं।’’
‘‘मैं हँसी इस कारण थी कि हम उनमें से एक जिसे जमीन कहते हैं, पर टिके हुए हैं। अगर कहीं हमारे पाँव इस पर से फिसले तो फिर हम कहाँ उड़ती फिरेंगी?’’
उत्तर प्रज्ञा ने दिया, ‘‘यह किसी अज्ञानी वैज्ञानिक का लेख है। आज एक नया विचार पैदा हो गया है।’’
‘‘क्या?’’ कमला का प्रश्न था।
‘‘यही कि नक्षत्र और तारागण कम से कम हमारी आकाश-गंगा में स्थिर हैं और एक स्थिर गति से कदाचित् किसी बड़े नक्षत्र के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं।’’
‘‘यही हमारे शास्त्रों में भी कहा है। वहाँ लिखा है–येन द्यौ रुग्रा पृथिवी च दृढ़ा...।
|