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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
प्रज्ञा अपने कमरे में गई तो सरस्वती अपने लिए एक कुर्सी उठा ज्ञानस्वरूप के पास आकर बैठ गई।
‘‘अम्मी! आप भी आ गईं हैं?’’
‘‘हाँ! नींद नहीं आ रही।’’
मगर इनको बहुत देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। आधा घंटा ही बीता होगा कि बहुत धीरे से किसी ने कमरे का द्वार खोला। कमरे में से कमला निकली तो अम्मी और भाईजान को बाहर कुर्सियाँ लगाये बैठे देख चकित रह गई।
तुरन्त ही उसने उँगली के संकेत से अम्मी और भाई को अपने साथ आने को कहा और तीनों उस कमरे में चले गये, जिसमें सालिहा ठहरी हुई थी।
वहाँ बैठे कमला ने कहा, ‘‘मुझे अपनी अम्मी की हरकत पसंद नहीं आई तो पलंग से उठकर अपने स्टडीरपूम की मेज के समीप कुर्सी पर जा बैठी।’’
‘‘क्या किया था उसने?’’ सरस्वती ने पूछा।
‘‘मेरे पलंग पर मेरे साथ लेट कर मुझे गले लगा मेरा मुख चूमने लगी थी। मैंने तो यत्न किया था कि सो जाऊँ, मगर अम्मी के प्यार से नींद नहीं आ रही थी। इसलिये पलंग से उठ कुर्सी पर आ बैठी थी।
‘‘अब वह सोई है तो मैं बाहर निकल इस कमरे में सोने के लिए आई हूँ।’’
‘‘ठीक है! अब सोना चाहिए। भीतर से दरवाजा बन्द कर सो जाओ। सुबह चार बजे मिलेंगे, जब तुम पढ़ने आओगी।’’
सालिहा जब सोई तो अगले दिन सात बजे उठी। नींद खुलने पर जब उसे समझ आया कि वह वहाँ क्यों है और कैसे है तो हड़बड़ाकर कमला की पढ़ाई की मेज की ओर देखने लगी। वहाँ कुर्सी खाली पड़ी थी।
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