उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘वह मान गई और अब उस अफसर की दो बीवियाँ हैं। एक शादी शुदा और दूसरी गैर शादी-शुदा। दोनों खुश हैं। मैंने अपने मित्र को समझाया, थोड़ा डिप्लोमेसी से काम लो तो सरकारी कानून को उलांघ सकते हो।’’
अब्दुल हमीद ने अपनी बीवी सालिहा से पूछा, ‘‘क्यों बेगम! क्या चाहती हो?’’
‘‘मैं तो यह कहती हूँ कि नगीना से सुलह कर लो और इसे इस्लाम की बरकतें बताकर इसे किसी दीनदार से शादी करने पर राजी कर लो। झगड़ा करने से कुछ फायदा नहीं।’’
सरस्वती ने कहा, ‘‘तो हजरत! मुकद्दमा वापस ले लीजिए। इन ईमानदार वकील साहब की बात तो ठीक ही है।’’
इस व्यंग को वहाँ बैठा कोई नहीं समझा। असलम ने बात बदल दी। उसने अब्दुल हमीद को कहा, ‘‘आप एक चिट्ठी मुझे लिखकर दे दें। उसमें लिखें कि मैंने अपनी लड़की और लड़के से सुलह कर ली है। वे मेरी बात मान गए हैं। इसलिए मैं मुकदमा वापस लेना चाहता हूँ।’’
‘‘और आपने जो एक हजार फीस पेशगी ली हुई है?’’ अब्दुल हमीद ने पूछ लिया।
‘‘उसी को तो हलाल कर रहा हूँ। आपने एक हज़ार मुझ को दिया है। अगर आप अगली पेशी पर अकेले भी आये तो हजार-बारह सौ और खर्च होगा ही। वह सब मैं आपका बचा रहा हूँ।’’
ज्ञानस्वरूप हँस पड़ा और बोला, ‘‘अब्बाजान! मान जाइये।’’
अब्दुल हमीद ने कहा, ‘‘यासीन! एक कागज लाओ। मैं अभी चिट्ठी लिख देता हूँ।’’
मगर असलम ने कह दिया, ‘‘आपने छपे फार्म पर खत दीजिए। सादे कागज पर लिखा जाली अथवा दबाव में लिखाया माना जा सकता है।’’
‘‘तो मैं अपने होटल में चलकर लिख दूँगा।’’
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