उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मगर शरअ में तो यह है?’’
‘‘होगा। मगर यह अपने मुल्क के कानून के खिलाफ है।’’
‘‘क्यों वकील साहब? आप क्या कहते हैं?’’
असलम ने कहा, ‘‘मैं तो यह कहूँगा कि चाय लेते हुए बात करें तो ज्यादा ठीक रहेगा।’’
अब्दुल हमीद हँस पड़ा। ज्ञानस्वरूप ने घंटा बजाई तो बेयरा आ गया। उसे सबके लिए चाय लाने के लिए कह दिया गया।
अभी बेयरा चाय नहीं लाया था कि किसी ने बरामदे में लगी घंटी का बटन दबाया। घंटी बजी तो प्रज्ञा उठकर बाहर चली गयी। वहाँ द्वार पर शिवशंकर खड़ा था। प्रज्ञा ने पूछा, ‘‘शिव! कुछ खास काम है?’’
‘‘दीदी! खास कुछ नहीं। मेरी परीक्षा समाप्त हुई है तो मैं खाली हो गया हूँ और इसलिये समय काटने के लिए वाकिफ लोगों के घरों के चक्कर काट रहा हूँ। आज ख्याल आया था कि दीदी के घर की सैर करनी चाहिये।’’
‘‘मेरी राय है कि इस वक्त भाग जाओ। हमारी कोठी में तुम्हारे जीजाजी के अब्बाजान आये हैं और मुकद्दमें की बाबत बातचीत होने वाली है। उनके वकील भी साथ हैं। तुम मेरे घर की सैर किसी दूसरे दिन करने के लिए आना।’’
शिवशंकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘ठीक है! फिर किसी दिन आऊँगा।’’
इतना कह वह चल दिया। प्रज्ञा भीतर आयी तो सबके लिए चाय और मिठाई इत्यादि लायी जा चुकी थी और सैण्टर-टेबल पर सजाई जा चुकी थी।
प्रज्ञा बैठ चाय बनाने लगी तो ज्ञानस्वरूप ने पूछा था, ‘‘कौन था?’’
‘‘कोई था, पीछे बताऊँगी।’’
अब ज्ञानस्वरूप ने अपनी बात कह दी। उसने कहा, ‘‘मैं चाहता हूँ कि मुस्लिम सिविल लॉ के कुछ मुकद्दमे सुप्रीमकोर्ट में जायें तो इस विरोधाभास को दूर किया जा सके कि भारत के एक शहरी के मौलिक अधिकार ऊपर हैं अथवा इस्लामी कानून।
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