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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘हम अपनी भक्ति कर रहे हैं।’’

‘‘और परमात्मा?’’

‘‘वह भीतर से बाहर अधिक है।’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मेरे मुख में लार टपक रही है। वह देखो, चाट वाले की दुकान पर भीड़ लगी है। जल्दी-जल्दी प्रसाद चढ़ा आओ, फिर पेट पूजा करेंगे।’’

रविशंकर गम्भीर विचार में मग्न विष्णुसहाय के साथ चल पड़ा, परन्तु उसका मन तथा बुद्धि तीव्र गति से कार्य कर रहे थे। दोनों ने मन्दिर में प्रसाद चढ़ाया और फिर एक चाट वाले की दुकान पर जा पहुँचे। दोनों ने चाय बनवाई और खाने लगे। खाते हुए रविशंकर ने कहा, ‘‘चाय बहुत स्वादिष्ट है, परन्तु स्वाद तो इन्द्रियों का विषय है।’’

‘‘हाँ, वे इन्द्रियाँ स्वाद मन को बता रही हैं, मन जीवात्मा को बता रहा है।’’

‘‘देखो मित्र!’’ अब रविशंकर ने कहा, ‘‘यह ऐसे ही है जैसे कोई किसी वेश्या के पास जाता है और उससे रस प्राप्त करता है। रस प्राप्त करते हुए भी वह रस का प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकता। वासना-तृप्ति के पीछे जैसे सन्तान प्राप्ति की सिद्ध न हो, वैसे ही चाट खाना है। बिना परमात्मा की भक्ति के यह जंचता नहीं।’’

विष्णुसहाय हँस पड़ा। उसने हँसकर कहा, ‘‘तो ऐसा करते हैं कि चाट यहाँ खाते हैं और फिर कहीं कनाट प्लेस के पार्क में बैठ कर परमात्मा के विषय में विचार-विनिमय कर लेते हैं। यहाँ भीड़-भाड़ में इस प्रकार की चर्चा नहीं हो सकती।’’

दोनों ने चाट समाप्त की और फिर कनाट प्लेस की ओर चल पड़े। दोनों के हाथ में प्रसाद के लिफाफे थे।

कनाट प्लेस के पार्क में पहुँच दोनों एक बैंच पर बैठ गये। विष्णुसहाय ने कहा, ‘‘हाँ, अब बताओ मित्र! उस भीड़-भाड़ में क्या कह रहे थे?’’

‘‘यही कि यदि वहाँ मन्दिर में परमात्मा की भक्ति तथा आत्म-शुद्धि नहीं होती तो फिर हम वहाँ जाते क्यों हैं?’’

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