उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘शरीर-पालन के लिए। वहाँ जाने का यही उद्देश्य है। परमात्मा अथवा महावीरजी लड्डू नहीं खाते। यह तो एक मेला है। इस प्रौढ़ावस्था में सप्ताह के उपरान्त एक दिन यहाँ दिल बहलाने को चले आते हैं।’’
‘‘और देखो भाई! तुमने इसकी तुलना वेश्यागमन से की है। यह उचित नहीं है। हाँ, इसी तुलना भोजन करने से हो सकती है, शेष कुछ नहीं। यदि तुम कुछ वैसा समझते हो तो वह भूल है।’’
‘‘परमात्मा चिन्तन का विषय है। गीता में कहा है कि ज्ञान प्राप्त करना ही परमात्मा को जानना है। यहाँ आकर और इसी प्रकार नमाज पढ़कर हम ज्ञान-विज्ञान को छू भी नहीं सकते। मैं मानता हूँ कि इस विशाल संसार का ज्ञान की वास्तव में परमात्मा का ज्ञान है।’’
‘‘परन्तु प्रायः वैज्ञानिक नास्तिक होते हैं?’’
‘‘मैं यह जानता हूँ और वास्तव में उनको विशाल संसार के किनारे पर बैठा पत्थर चुन रहा ही मानता हूँ। वे सबकुछ देखते हुए भी नहीं देखते।’’
‘‘देखो! मैं बताता हूँ। यह देखो, सामने क्यारी में फूल लगे हैं। कितने सुन्दर हैं और वैज्ञानिक यह देख रहे हैं कि इनका रंग-रूप अति लुभायमान है। परन्तु क्यों हैं, वे नहीं जानते। किस प्रकार सामान्य नाइट्रोजन, कार्बन, हाइड्रोजन और आक्सीजन के परमाणु इस विचित्र ढंग से एकत्रित हो गए हैं, वे नहीं जानते। जानना चाहते भी नहीं। इस कारण वे इसके निर्माण करने वाले को नहीं जानते।’’
‘‘तो यह कौन जानता है?’’
‘‘मैं समझता हूँ कि यदि हम नित्य एक घंटा-भर मिला करें और इस समस्या पर विचार किया करें तो निश्चय जानो कि तुम भी महावीर के शिष्य बनने के स्थान भगवान् कृष्ण के भक्त बन जाओगे और फिर ज्ञान की खोज में लीन हो जाओगे।’’
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