उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
शिवशंकर ने आगे कह दिया, ‘‘पूर्वजन्म तो दोनों का था। जन्म देने वाले को पता था कि भारत में भाषा की दासता व्यापक रूप में होगी। इस कारण नेहरू को पण्डित मोतीलाल के घर में भेज दिया, जो उसे अंग्रेजी दासों का नेता बना सके।’’
रविशंकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘तो परमात्मा के घर में बहुत बड़ा दफ्तर रहा होगा जो वह सबके कर्मों का लेखा-जोखा रखता होगा?’’
‘‘जरूर रहा होगा। कम-से-कम प्रभु के भक्त हनुमानजी से तो बड़ा कार्यालय होना ही चाहिए।’’
इस पर सब हँसने लगे। हँसते हुए महादेवी ने कहा, ‘‘बिना पूर्वजन्म के कर्मों के एक सामान्य बुद्धि का राजा बन जाये और एक विद्वान रंक बन जाये, स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’
‘‘यह सब घटनावश भी तो हो सकता है!’’ रविशंकर का कहना था।
‘‘हाँ पिताजी! वैसे ही, जैसे हनुमान के मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने का सम्बन्ध आपकी उन्नति से है।’’
पुनः सब हँसने लगे।
इस पर भी विष्णुसहाय ने यह कैसे कह दिया कि नमाज पढ़ने वाला और हनुमानजी के मन्दिर में नियम से जाने वाला, ‘‘दोनों परमात्मा को न मानने वाले भी हो सकते हैं। रविशंकर मन में विचार कर रहा था कि जब वह अगले मंगलवार को हनुमानजी के मन्दिर में उससे मिलेगा तो पूछेगा।
मंगल के दिन दोनों मित्र ठीक साढ़े पाँच बजे मन्दिर के द्वार पर मिले। दोनों भीतर जाने लगे तो रविशंकर ने विष्णुसहाय के कंधे पर हाथ रख उसे रोक लिया और पूछ लिया, ‘‘डाक्टर साहब! भीतर जाने से पहले मेरा एक संशय निवारण कर दीजिए।’’
विष्णुसहाय ठहर गया। रविशंकर ने पूछा, ‘‘हम परमात्मा की भक्ति कर रहे हैं अथवा नहीं?’’
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