उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अब्बाजान! मुझे औलाद के लिए कुछ खास इच्छा महसूस नहीं होती। जब होगी तो फिक्र करूँगा।’’
‘‘तुम आजकल के पढ़े-लिखे बेवकूफों की तरह वह रबड़ की टोपियाँ तो इस्तेमाल नहीं करते?’’
‘‘नहीं अब्बाजान! उसे मैं गुनाह समझता हूँ। जब औलाद जरूरत से ज्यादा होने लगेगी तो हम सोच लेंगे।’’
‘‘हकीकत में मैं यही देखने आया था। मैं देखना चाहता था कि यहाँ सिर्फ अक्ल ही है या अन्य कुछ मतलब की बात भी हो रही है?’’
‘‘अब्बाजान! हो जाएगा, अभी जल्दी नहीं है।’’
खाना समाप्त हुआ तो सब ड्राइंग-रूम में चले आये। यासीन ने अब्बाजान को वहीं कमरे में रोक लिया। जब सब चले गए तो उसने कहा, ‘‘कल प्रज्ञा का बड़ा भाई आयेगा। जरा उसे गौर से देखिएगा। मैं अपने ख्याल में उसे नगीना के लिए सोच रहा हूँ।’’
‘‘तो नगीना को प्रज्ञा के बदले में दे रहो हो?’’
‘‘बदले में तो तब होता, जब मेरी शादी हुई थी। उसे छः महीने से ऊपर हो चुके हैं और यह ख्याल तो अभी मैंने प्रज्ञा से भी नहीं कहा। वहाँ बैठे-बैठे उसे देखकर ही मुझे सूझा है। मैंने उसकी अम्मी से कहने और उसकी इजाजत लेने के लिए अभी किसी से नहीं कहा।’’
‘‘तो अभी किसी से मत कहना। जब तक तुम्हारे कोई औलाद नहीं हो जाती, तब तक मैं इस खानदान से और गहरे ताल्लुकात बनाना नहीं चाहता है।’’
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