उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अभी कुछ बहुत नहीं। हिन्दी जुबान के अलावा नमाज पढ़ने का नया ढंग सीखा है। अब मैं भूमि पर गद्दा बिछा, उस पर पलथी मारकर नमाज पढ़ता हूँ। वह खुद भी मेरे साथ पलथी मार बैठ जाती है और अपनी जुबान में नमाज पढ़ती है। हम दोनों एक-दूसरे की नमाज में खलल नहीं डालते।’’
इस पर तो सब यासीन का मु ख देखते रह गए। बात यासीन ने ही आगे चलाई। उसने कहा, ‘‘अब मैंने प्रज्ञा को नमाज हिन्दी के लफ्ज़ों में लिखा दी है और इसने मुझे बताया है कि अरबी बोलने में तो कष्ट होता है जबकि उससे इसकी सुबान सरल है।’’
‘‘यह क्या होती है?’’
‘‘बोलने में आसान है।’’
‘‘यह सब मशक से ठीक हो जाता है।’’
खाना खाया जा रहा था। सबके लिए मीट बना था और प्रज्ञा भी सबके साथ ले रही थी। अब्दुल हमीद ने पूछा, ‘‘तो यह गोश्त खाने लगी है?’’
‘‘यह खा तो रही है।’’
‘‘इसे मोटा मांस नहीं चखाया?’’ हमीद ने पूछ लिया।
‘‘एक दिन मैंने इसे कहा था। इसने कुछ मुझे समझाया। तब से वह घर में हमने नहीं मँगवाया।’’
‘‘और यह बताओ,’’ अब्दुल हमीद ने पूछा, ‘‘तुम मेरे कुनबे में इजाफा क्यों नहीं कर रहे?’’
‘‘अब्बाजान! कोशिश तो कर रहा हूँ। औलाद तो खुदा के हाथ में है।’’
‘‘देखो! तुम्हारी माँ ने तुम्हे पैदा कर जब तीन साल तक तुम्हारा कोई भाई-बहन नहीं बनाया तो मैंने दूसरी और तीसरी शादी कर ली थी।’’
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