उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘क्या?’’
‘‘मेरा नाम भी अपनी जुबान में रख लिया है और खूबी यह है कि वह नाम इसके अपने नाम से बिल्कुल फिट बैठ रहा है।’’
सरवर हंस पड़ी। हँसते हुए बोली, ‘‘इस लड़की ने मुझे समझाया है कि यह ऐसे ही है जैसे चाँदी के प्याले में दूध भर दिया जाए।’’
‘‘कौन दूध है और कौन प्याला?’’ सालिहा ने पूछ लिया।
उत्तर सरवर ने ही दिया, ‘‘यह कहती है कि अक्ल एक बर्तन है। उसमें इल्म भरा जाए तो अक्ल खूबसूरत हो उठती है। इसलिए इसने खाविन्द का नाम इल्म रख दिया है। इसकी जुबान में इल्म को ज्ञान कहते हैं। यासीन इसके लिए ज्ञान हो गया है। इसका पुरा नाम रखा गया है, ज्ञानस्वरूप। मतलब यह कि मुजस्सम इल्म।’’
अब्दुल हमीद ने कह दिया, ‘‘मगर हमारे लिए तो यह यासीन ही रहेगा।’’
‘‘यह कहती है कि हमें यह मना नहीं करती। न ही ऐसा करने की यह तौफीक रखती है।’’
‘‘मगर यासीन! तुम किस नाम से बोलोगे?’’
‘‘जिससे आप बुलायेंगे। यह तो बुलाने बाले की मर्जी के मुताबिक है। प्रज्ञा कहती है कि उसकी जुबान बहुत मीठी है। इस वास्ते मैं भी हिन्दी के नए-नए शब्द सीखने लगा हूँ। कालेज में औप्शनल सब्जेक्ट हिन्दी था, मगर हिन्दी बोलने का अभ्यास नहीं था और अब अभ्यास कर रहा हूँ।’’
‘‘और अब्बाजान! एक बात और सीखी है। कहें तो बताऊँ?’’
‘‘हाँ, हाँ! सब बता दो, जो कुछ आज तक बीवी के मकतब में तुमने सीखा है।’’
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