उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘कुछ ऐसा लग रहा है कि इनकी माँ अपनी लड़की को शादी के मौके पर कुछ देना चाहती थीं। वह इसे अब देने का विचार रखती हैं।
‘‘अगर आप कहें तो मैं टेलीफोन पर प्रज्ञा के भाई को बता दूँ कि आप सब यहाँ हैं और कल हम आ रहे हैं। कल ‘सण्डे’ है और दुकान बन्द होगी।’’
‘‘नहीं! इस तरह नहीं।’’ अब्दुल हमीद ने कह दिया, ‘‘अब तुम उनको दावत दो और कहो कि तुम उन सबको अपने घर पर दोपहर के खाने पर दावत देते हो। साथ ही कह दो कि हम सब आए हुए हैं और हमें उनसे मिल कर अजहद खुशी हासिल होगी।’’
मुहम्मद यासीन मेज पर से उठा और ड्राइंग-रूम में टेलीफोन करने चला गया। टेलीफोन कर लौटा तो उसने बताया, ‘‘बात प्रज्ञा के पिताजी से हुई है और वह आना मंजूर कर रहे हैं। वे सब चार प्राणी आयेंगे।’’
सालिहा ने कह दिया, ‘‘वे चार हम तेरह में, आटे में नमक की तरह हो जायेंगे।’’
‘‘तो आटा कड़वा हो जाएगा।’’ सरवर ने हँसते हुए कहा, ‘‘तेरह किलो आटे में चाल किलो नमक तो बहुत ज्यादा होता है।’’
‘‘मगर,’’ अब्दुल हमीद ने कह दिया, ‘‘यासीन! तुम्हारी ज़ुबान हिन्दवी हो रही महसूस हो रही है।’’
‘‘ओह हाँ, अब्बाजान। यह संगत का फल है। यह ऐसे ही है जैसे आप गुजराती और मराठी के कई अल्फाज सीख गए हैं।’’
‘‘मगर वह तो दुकानदारी है।’’
‘‘हाँ, अब्बाजान! और यह खानादारी है। प्रज्ञा तो फारसी बोल सकती ही नहीं। यह शुद्ध हिन्दी ही बोलती है और अब्बाजान इसने एक और बात की है।’’
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