उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैंने पूछा, ‘‘अकेली ही जाओगी क्या?’’
‘‘इस पर बेगम बोली, ‘जो चाहे मेरे साथ चल सकता है। मैं किसी को साथ चलने से मना नहीं करूँगी।’’
‘‘मैंने कहा, ‘मैं साथ चलूँगा।’ अपनी अम्मी के साथ नगीना खड़ी थी। वह बोल उठी, ‘मैं भी चलूंगी। मुझे भी हर रोज ख्वाब में भाईजान के दीदार होते हैं।’’
‘‘हमने जब दूसरों को बताया तो सब तैयार हो गए। दस सीटें एक साथ अढ़ाई बजे की फ्लाईट में मिलीं और हम यहाँ आ गए।’’
मुहम्मद यासीन अपने पिता से इजाज़त ले दुकान को चला गया और अन्य सब चाय लेने लगे।
यासीन रात के साढ़े आठ बजे दुकान से लौटा तो सब खाने की मेज पर जा बैठे। मेज छोटी पड़ गई थी। इस कारण एक लड़की और दो छोटे लड़कों के लिए एक छोटी मेज अलहदा लगा दी गई।
मुहम्मद यासीन ने अपनी ससुराल की बात बता दी, ‘‘चार बजे के करीब प्रज्ञा ने बताया कि इसके भाई अमरीका से आए हैं और मुझे मिलने के लिए बुला रहे हैं।
‘‘मैंने पूछा, ‘तुम अकेली को बुलाया है क्या?’
‘‘इसने कहा, ‘उन्होंने दावत ‘प्लूरल’ इल्फाज़ में दी है।’ उन्होंने पूछा था कि हम कब आयेंगे? मैंने उत्तर दिया, हम दोनों अभी आ रहे हैं। इस पर वह कहने लगे, ‘जल्दी आ जाओ! चाय ठण्डी हो रही है।’’
‘‘अब्बाजान! इस तरह यह शुरुआत हो रही है मेरी उस घर में आने-जाने की। यह इस वास्ते कह रहा हूँ क्योंकि वहाँ से दावतनामा ले आया हूँ अपनी अम्मी के लिए भी। मुझे उनके सलूक से यह समझ आया है कि अगर उनको मालूम होता कि आप सब बम्बई से आए हुए हैं तो आप सब को दावत देते।
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