उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘भूल यह नहीं कि उस स्टेटमेण्ट में कुछ गलत बात थी। उसका तमाम वृत्तान्त मैंने मैम्बरों की मेज पर रख दिया है। उसमें कुछ भी भूल नहीं है।’
‘इस पर भी भूल यह हुई है कि मैंने आप सबके सामने वह वक्तव्य नहीं दिया था जो अब रखा है। यह मेरी भूल थी और इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।’
‘‘यह उत्तर महावीरजी ने मेरे मन में सुझाया था।’’
शिवशंकर ने कहा, ‘‘यह तो ठीक है। परन्तु पिताजी! इसमें हनुमानजी कहाँ से आ गए? और फिर यह भी तो है कि ऐसा सफलता अस्थाई होती है। यह मरने के उपरान्त नहीं रहती।’’
‘‘रहती तो है। मेरी सफलताओं का ही प्रतीक यह अढ़ाई लाख रुपये की लागत की कोठी है और मेरा इतना बैंक बैलेंस था कि तुम्हारे भाई को मैं अमेरिका भेज सका था।’’
‘‘मगर आपका यह मकान और दादा की डिग्री तो आपके साथ नहीं जायेंगी। आपके अब आवश्यकता है उस वस्तु की जो इस जीवन के उपरान्त आपका साथ देने वाली है।’’
‘‘यह कोठी और दादा की डॉक्टरी आपके साथ नहीं जायेगी।’
‘‘नहीं जायेंगी तो न जाएँ। मुझे भविष्य की चिन्ता नहीं। भविष्य किसने देखा है?’’
‘‘परन्तु पिताजी! वह तो है। उसके न मानने से संसार में जो कुछ हो रहा है, उसका भली-भाँति वर्णन नहीं किया जा सकता।’’
‘‘तो न हो। मुझे उसके वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। मेरा सम्बन्ध तो अब इस जन्म की प्राप्ति से है।’’
‘‘पर जो कुछ वर्तमान में हो रहा है, उसका कोई कारण तो होना चाहिए। अकारण इस संसार में कुछ नहीं होता।’’
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