उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
विष्णुसहाय ने मुस्कराते हुए प्रज्ञा से पूछ लिया, ‘‘परन्तु बेटी! तुमने कुछ तो इन कहे जाने वाले ज्ञानस्वरूप में देखा होगा, जिससे आकर्षित हो तुमने इनको पति मान लिया था?’’
‘‘जी! देखा था। इनकी निर्भीक और सौम्य आँखों में तथा इनकी युक्तियुक्त वार्तालाप में परमात्मा का वास समझा था और मैं समझती हँक कि ठीक ही समझा था। इस कारण अपनी सूझ-बूझ पर मैं गर्व किया करती हूँ।’’
‘‘ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूरी करे। यदि जीवित रहा तो आगामी वर्ष अपने जन्मदिन पर तुम्हारी निष्ठा का फूल देखने का यत्न करूँगा।’’
‘‘इस पर ज्ञानस्वरूप ने अपने घर की बात बता दी, ‘‘पिछले मंगल के दिन उमाशंकर जी ने अपने क्लीनिक का उद्घाटन किया था और यहाँ पिताजी ने अपनी लड़की को आमंत्रित किया था। परन्तु वह निमंत्रण-पत्र हम तक नहीं पहुँच सका। कारण यह कि मेरे मन में क्रान्ति उत्पन्न हो गयी थी। मैंने अपना और अपने मकान का नाम बदल डाला था। डाकिये ने पुराने नाम से आया निमंत्रण-पत्र वापस कर दिया। पीछे दादा उमाशंकरजी ने टेलीफोन कर अपनी बहिन को बुला लिया था।
‘‘इस पर पिताजी नाराज हो गये और उनकी लड़की यहाँ से अनादर पूर्वक लौटा दी गयी।’’
‘‘आज फिर जब यहाँ भोजन का निमंत्रण मिला तो मेरी अम्मी ने यह शंका प्रकट की थी कि उस दिन वाले व्यवहार की पुनरावृत्ति हो सकती है। यद्यपि बीच में एक दिन हम यहाँ भोजन कर चुके थे, इस पर भी शंका बनी ही हुई थी।’’
‘‘परन्तु प्रज्ञा जी और मेरी भी यही राय बनी कि जाना चाहिए। हमारे हृदय में किसी प्रकार का द्वेष नहीं। इस कारण हमें किसी दूसरे के भावों का अनुमान अपने मन से ही लगाना चाहिये।’’
‘‘साथ ही प्रज्ञा जी ने कहा कि यदि कुछ नाराज़गी प्रकट की जायेगी तो हमारे मन पर उसका प्रभाव पहले की भाँति ही नहीं होगा। इस कारण अपमान नहीं होगा। मान-अपमान तो मानने से ही होते हैं।’’
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