उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो रविशंकरजी! चिन्ता किस बात की करते हैं? वह इसका मार्ग कल्याणमय बना देंगे।’’
‘‘देखो भाई! भगवद्गीता में लिखा है, जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवता की भक्ति करता है, वह-वह देवता उसे प्राप्त हो जाता है और वह आपको भी प्राप्त होगा।’’
‘‘और हाँ, आपने टेलीफोन कराया था कि मध्याह्न का भोजन मिलेगा और अब एक बज रहा है। भूख लग रही है। महावीरजी का आश्रय लेकर भोजन करिये, सब ठीक होगा।’’
सब उठ खड़े हुए। भोजन के लिए डाइनिंगरूम में जाते-जाते विष्णुसहाय ने कहा, ‘‘परन्तु एक बात बता दूँ। वह भी समझ लेना। वह यह है कि परमात्मा के भक्तों का यह मार्ग नहीं है। ऐसा वहाँ लिखा है कि देवताओं में भक्ति अस्थाई फल वाली होती है।’’
‘‘यह क्यों?’’ साथ-साथ चलते हुए रविशंकर ने पूछ लिया।
‘‘यह इस कारण कि ये देवता भी अस्थाई होते हैं। हनुमानजी नहीं रहे। राम और कृष्णजी भी नहीं हैं। इनकी भक्ति का फल भी नहीं रहेगा।
‘‘जैसे किसी मित्र की मित्रता अस्थाई होती है, वैसे ही देवता की भक्ति का फल भी अस्थाई होता है।’’
सब खाना खाने की मेज पर बैठ गये। प्रज्ञा सब की प्लेटों में खाने के पदार्थ डालने लगी थी।
‘‘कुछ लोग,’’ विष्णुसहाय ने आगे कह दिया, ‘‘मित्र के निधन के उपरान्त उसकी स्मृति को अपने चित्त में हरा-भरा रखने का यत्न करते रहते हैं। परन्तु मित्र का अपना चित्त भी तो नष्ट होने वाला होता है।’’
रविशंकर को हिन्दू फिलौसोफी की एक झलक ही विष्णुसहाय से प्राप्त हुई। उसको समझ आया कि पीर-पैगम्बर अथवा अवतार भी समाप्त हो गये तो उनकी पूजा-पाठ भी स्थाई लाभ करने वाली नहीं होगी। तो किसकी भक्ति करनी चाहिए? इस पर भी अपना अज्ञानता न प्रकट करने के लिए उसने मौन रहना ही उचित समझा।
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