उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘इसी प्रकार आप दामाद का सत्कार-आदर कर सकते हैं और वह भी आपका आदर-सत्कार कर सकता है। दोनों का व्यवहार समान होगा। परन्तु आपके मन में इसके व्यवहार को न पसन्द करते हुए भी दिखावा तो करना ही होगा। ज्ञानस्वरूप मन में क्या समझेगा, यह वह जाने। परन्तु जब तक व्यवहार में समानता रहेगी, आपका सम्बन्ध ज्ञानस्वरूप से ऐसे ही बना रहेगा जैसे हमारी मित्रता है।’’
सब बच्चे हँसने लगे। इससे कुछ चिढ़ कर रविशंकर ने पूछ लिया, ‘‘तो आपसे मेरी मित्रता है?’’
‘‘बहुत गहरी। परसों मंगल के दिन फिर वहाँ मंदिर के प्रांगण में मिलेंगे। चाट खायेंगे। कांजी वाले बताशे और दही इमली में सने भल्ले खायेंगे। फिर सवा रुपये का प्रसाद। उसमें से कुछ मन्दिर के लिए और शेष अपने बच्चों का मुँह मीठा करने के लिए घर पर। यह पिछले बीस वर्ष से चल रहा है। अब भी चलेगा।’’
‘‘तो आपके मन में हनुमानजी के लिए श्रद्धा नहीं है?’’
‘‘श्रद्धा तो है। एक महापुरुष में श्रद्धा की भाँति। परन्तु महावीर जी मन्दिर में तो हैं नहीं। वह मेरे और आपके मन में ही हैं। मेरे मन में उसका स्वरूप यह है कि बहुत अतीत काल में एक कठिनाई में फँसे महापुरुष राम को इस वीर ने सहायता दी थी। आपके मन में क्या है, यह मैं नहीं जानता।’’
‘‘परन्तु मैंने मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने के समय जो मन में आकांक्षा की है, वह सदा पूर्ण हुई है।’’
विष्णुसहाय हँस पड़ा और बोला, ‘‘और कभी अपनी लड़की के इस सम्बन्ध के विषय में भी कुछ महावीरजी से माँगा है क्या?’’
‘‘माँगा है।’’
‘‘क्या?’’ यदि बताने में कुछ आपत्ति न हो तो बता दें।’’
‘‘आकांक्षा तो सदा यह की है कि वह इसका कल्याण करें। जिस ओर यह जा रही है, वह उसे वहाँ से बाँह पकड़कर बचा लें।’’
|