उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
महादेवी, उमाशंकर और शिवशंकर रविशंकर की बात पर मुस्करा रहे थे। प्रज्ञा सन्तुष्ट बैठी थी। ज्ञानस्वरूप तो सहज भाव से बातचीत कर रहा था, मानो वह दुकान पर ग्राहकों से बात कर रहा हो। आज कमला गम्भीर बैठी थी। वह समझ रही थी कि यह सब-कुछ उमाशंकर के पिता उसे घर से बाहर रखने के लिए कह रहे हैं। उसकी चिन्ता का विषय उसके अब्बाजान का मुकद्दमा था। उसकी हाज़िर जमानत हो चुकी थी और अगामी वीरवार को पेशी थी, जिसमें उसने अर्जी का उत्तर देना था। उत्तर वकील तैयार कर रहा था। उसकी चिन्ता का विषय यह था कि वकील उमाशंकर का मित्र था और उसने ही तय किया था। इस कारण उमाशंकर के प्रयास को डाइनमाईट लगाकर व्यर्थ करने का यत्न किया जा रहा था। वह यह समझ चिन्ता अनुभव कर रही थी।
विष्णुसहाय बोल उठा, ‘‘भाई रविशंकर! जो कुछ अभी तक पता चला है वह यह है कि ज्ञानस्वरूपजी मजहबी मनोवृत्ति नहीं रखते और आप मज़हबी मनोवृत्ति रखते हैं। इस कारण दोनों में पट नहीं रही।
‘‘जो अवस्था मेरी आपके सम्बन्धों की है, यदि ज्ञानस्वरूप भी वैसा ही समझ ले तो जैसे हम दोनों की पट रही है, वैसे ही दामाद-श्वसुर की भी पट जायेगी।’’
‘‘हमारे सम्बन्धों में क्या बात है?’’ रविशंकर का प्रश्न था।
‘‘सर्वथा सरल और स्वाभाविक। हम बाहरी व्यवहार में एक समान हैं। इसे आप मज़हब कहते हैं और मैं इसे चाट खाना तथा मन्दिर पर खेल-तमाशा देखना समझ रहा हूँ। नाम कुछ भी हो, दोनों के व्यवहार में समानता ही है।
‘‘आप भी मन्दिर में प्रसाद चढ़ाते हैं और मैं भी चढ़ाता हूँ।’’
‘‘आप इससे मन में सुख अनुभव करते हैं, मैं भी इसको एक मनोरंजन का कार्य समझ सुख अनुभव करता हूँ। इस पर भी हम दोनों समान व्यवहार में उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं। मेरा मनोरंजन होता है और आपकी आत्मा को सुख मिलता है।
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