उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘जो आप हनुमानजी के मन्दिर में प्रति मंगल के दिन करने जाते हैं?’’
‘‘वह तो मैं वहाँ चाट खाने और मिठाई खरीदने चला जाता हूँ। खरीदी मिठाई में से थोड़ी मन्दिर में चढ़ा देता हूँ। वह भी इसलिए कि मन्दिर वाले वहाँ प्रति सप्ताह मेला लगाकर जो उपकारी कार्य करते हैं, उसका प्रतिकार कुछ उनको देना ही चाहिए।’’
‘‘और हनुमानजी की मूर्ति?’’
‘‘वह तो मिट्टी की बनी हुई है। बचपन में मैं अपने गाँव में कई बना-बनाकर गिराया करता था।’’
रविशंकर ने मन में विचार किया कि इस नास्तिक डाक्टर को अपने घर के झगड़े में मध्यस्थ बना उसने भारी भूल की है।
कुछ और विचार कर उसने कह दिया, ‘‘मित्र! हमारे कार्यों के बाहरी रूप और उनके नीचे मन की भावना में सदा अन्तर रहता है। इस कारण प्रत्येक कार्य को करने का हृदय में कारण जो कुछ रहता है, वह कार्य रूप में प्रकट नहीं होता। उसको जानने के लिए कार्य करने वाले के मन को खोद-खोदकर पता करना होता है।’’
‘‘और ज्ञानस्वरूप के कार्य का कारण इसके मन में खोदने के लिए आपको बुलाया है। मैं एक मज़हबी आदमी हूँ और इस कारण इनके इस सब कार्य को छलना मानता हूँ। यह मेरी लड़की को इस घर से ले गया है और अब मेरे लड़के उमाशंकर पर हाथ साफ करने का यत्न कर रहा है।’’
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