उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘डाक्टर साहब!’’ प्रज्ञा ने कहा, ‘‘यह इण्डो-यूरोपियन भाषा वैदिक भाषा ही थी। वेद भाषा से ही यूरोप की और भारत की सब भाषायें निकली हैं।’’
‘‘तो इससे क्या सिद्ध हुआ जो तुम सब ने नाम बदल लिए हैं?’’ रविशंकर का प्रश्न था।
‘‘नहीं, मैंने यह नहीं किया। इस ज्ञानस्वरूप नाम के निर्माण में मेरा हाथ नहीं है। ज्ञान और स्वरूप के शब्द तथा इनके लिखने के ढंग में कुछ आकर्षण है। मैंने तो इतना ही किया है कि जो ईजाद किया जा चुका था उसमें से अनुकूल को ग्रहण कर लिया है।’’
अब पुनः विष्णुसहाय ने बात का सूत्र हाथ में लेकर कहा, ‘‘आप तो बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं और रविशंकर जी कह रहे हैं कि आप मुसलमान की सन्तान हैं।’’
‘‘हिन्दी भाषा, मैंने बताया है न कि बी.ए. में ली थी। इस पर भी बोलने में इसका अभ्यास नहीं था। अब पिछले आठ महीने से विवाहित जीवन में मुझे अभ्यास हो गया है। मेरी श्रीमती संस्कृत में भी एम.ए. हैं।’’
‘‘और,’’ विष्णुसहाय ने पुनः पूछा, ‘‘आप इस बात से सुख अनुभव करते हैं?’’
‘‘जी! केवल यह नहीं मेरी माँ सरवरजी ने भी अपना नाम सरस्वती मंजूर कर लिया है। और मेरी बहिन जो पहले नगीना थी, अब अपने को कमला कही जाने से प्रसन्न होती है।’’
‘‘तो रविशंकर जी!’’ विष्णुसहाय का कहना था, ‘‘आपको इसमें क्या खराबी मालूम होती है? मियाँ-बीवी राज़ी तो क्या करेगा काजी? साथ ही मुझे इन साहब की विचार-दिशा में कुछ भी दोष प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘मगर मजहब का प्रश्न तो है ही?’’ रविशंकर ने कह दिया।
‘‘वह क्या होता है?’’ विष्णुसहाय का प्रश्न था।
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