उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘उर्दू कोई भाषा नहीं है। इसी जो लिपि है, वह भी अशुद्ध और अधूरी है। मैं जब दसवीं श्रेणी में पढ़ता था तो एक दिन उर्दू लिपि में ‘क्रिया’ किरया में अन्तर पूछने अपने अध्यापक के पास जा पहुँचा। उसने बताया कि यह उर्दू की लिखावट में कमी है कि इसमें बहुत कुछ नहीं लिखा जा सकता और यह इस बात के आलम-फाज़िलों का काम है कि इसके दोषों को दूर करें।’’
‘‘मैंने उनसे पूछ लिया, तो मैं क्या करूँ?
‘‘उसका कहना था, तुम हिन्दी ज़बान सीखो और उसकी लिपि सीखोगे तो फारसी के शब्द भी उस लिपि में लिख सकोगे।
‘‘मैंने कालेज में हिन्दी ले ली और हिन्दी विषय लेकर परीक्षा पास की थी।
‘‘इसलिये मैं जानता था कि देवनागरी लिपि उर्दू से अधिक मुकम्मल और बढ़िया है।’’
‘‘इस पर प्रज्ञा जी ने बताया कि हमारे देश में एक बहुत पुरानी ज़बान है, जो शायद दुनिया की सब ज़बानों से पुरानी और उनकी माँ है। वह संस्कृत है। जब मेरे नये नाम का सवाल आया तो इन्होंने मेरे इस मौजूदा नाम का सुझाव दिया। मुझे यह पसन्द आया और मैंने मंजूर कर लिया।’’
‘‘मगर आपको यह किसने बताया है कि संस्कृत सब से पुरानी भाषा है? इसकी ग्रामर तो दो सहस्र वर्ष पुरानी है। भाषा तब से ही बनी समझी जानी चाहिये, जब उस भाषा की ग्रामर लिखी जाती है।’’
‘‘मगर डाक्टर साहब! मैंने सुना है कि संस्कृत की ग्रामर अष्टाध्यायी में लिखा है कि यह देवभाषा से निकली है। तत्कालीन समयानुसार उसके संस्कार कर यह संस्कृत बनायी गयी है।’’
‘‘हाँ! यूरोप के फाईलोलोजिस्ट कहते हैं कि यहाँ एक यूरो-इण्डो भाषा थी, जिससे संस्कृत इत्यादि भाषायें निकली हैं।’’
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