उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
रविशंकर ने कहा–‘‘जब तुमने अपना विवाह मुझे और अपनी माँ को बताये बिना किया था तो यह अपने में ‘अहं’ के होने के कारण नहीं था क्या?’’
‘‘वह तो आज के काल की गतिविधियों का ढंग है। किसी काल में लड़के-लड़कियों के विवाह बाल्यकाल में किये जाते थे। तब उनके लिये निर्णय उनके माता-पिता करते थे। अब मेरा विवाह हुआ है जब मैं पच्चीस वर्ष की हो चुकी थी और पिताजी के दामाद की आयु इस समय अट्ठाईस वर्ष है।’’
‘‘इतनी बड़ी आयु के समाज के घटक अपनी बुद्धि का प्रयोग ही तो कर रहे हैं। इसमें वैचित्र्य कैसे आ गया?’’
‘‘और हमने अपने माता-पिता से पूछने के विषय में परस्पर राय की थी। हम दोनों की यह राय हुई थी कि विवाह का विषय सर्वथा हमारा निजी है। जो इसे उनके विचार का विषय समझते हैं, वे हम से आकर इस विषय पर बात कर सकते हैं।’’
‘‘परन्तु यह आपके पति के डब्बल नाम क्यों है?’’ विष्णुसहाय ने बात बदल पूछ लिया।’’
उत्तर ज्ञानस्वरूप ने दिया, ‘‘भाषा की मधुरता और अर्थयुक्त होने के कारण नाम बदला था। मेरी पत्नी ने कहा कि नाम देश की भाषा में नहीं है। इस कारण मैंने उससे कह दिया कि वह कोई देश की भाषा में नाम का सुझाव दे दे। उससे यह नाम बताया, इसका अर्थ समझाया और फिर इसके अर्थों का अपने नाम के अर्थों से मेल बताया तो मैं मुग्ध हो उठा। मैंने नाम स्वीकार कर लिया।’’
‘‘परन्तु उर्दू भी तो हमारे देश की भाषा है?’’
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