उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैं समझता हूँ कि प्रज्ञा ठीक ही कर रही है।’’ आखिर रविशंकर माना। साथ ही उसने कह दिया, ‘‘तुम्हें अपनी प्रैक्टिस जमानी है। यदि मुकद्दमेबाजी में फंस गये तो सब किया-कराया नाली में बह जायेगा।’’
‘‘दोनों बातों का सम्बन्ध नहीं है। दोनों काम चलेंगे और सफलतापूर्वक चलेंगे।’’
इस मुकद्दमे का समाचार सुन रविशंकर नमर पड़ गया था। वह समाचार पत्रों में पढ़ता रहता था कि मुसलमानों का सिविल कोड हिन्दुओं से भिन्न है। वह यह भी जानता था कि हिन्दुओं में स्त्रियों को वे सब रियायतें हासिल हैं जो किसी भी यूरोपियन देश में औरतों को हैं। इससे वह समझ रहा ता कि कमला इत्यादि ने नाम बदलकर ठीक ही किया है। यह उसके मुकद्दमे में सहायक होगा।
पिताजी को मौन और बहिन के व्यवहार को उचित मानते देख उसने पूछ लिया, ‘‘ तो पिताजी! अब आप नहीं जा रहे हैं?’’
‘‘कहाँ नहीं जा रहा?’’ एकदम सतर्क हो रविशंकर ने पूछा। फिर स्वयं बात को स्मरण कर कहने लगा, ‘‘मेरे घर रहने और प्रज्ञा के अपनी ननद की मदद करने में कोई सम्बन्ध नहीं।’’
‘‘तो आप नहीं मानेंगे? मैं समझता हूँ कि इतनी बहादुर लड़की का आदर-सत्कार करना ही चाहिए।’’
‘‘क्या बहादुरी की है उसने?’’
‘‘उसने अपने पति के पूर्ण परिवार को हिन्दू घोषित करवा दिया है?’’
‘‘कोई कहने से तो हिन्दू होती नहीं?’
‘‘हाँ! हिन्दू तो वे पहले हुए हैं और बिना किसी को कहे हुए हैं। यह तो बहिन के श्वसुर ने जीजाजी और उनकी बहिन नगीना तथा अम्मी को विवश किया है कि वे अदालत में जाकर अपना हिन्दू होना घोषित करें।’’
‘‘मगर वे हिन्दू हुए हैं क्या?’’
|