उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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प्रज्ञा ने गुड़िया का डिब्बा उठाया और अपने पति के साथ चल दी। मोटर ज्ञानस्वरूप चला रहा था। प्रज्ञा उसके पास बैठी थी। गाड़ी चलाते हुए ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘तुम्हें घर पर छोड़ मैं दुकान की सुध लेने जाना चाहता हूँ।’’
‘‘आपकी तबीयत कैसी है?’’
‘‘वह तो तुम्हारी संगत का फल था।’’
‘‘हां, अब ठीक है।’’
‘‘क्या ठीक है?’’
‘‘यही कि आप माताजी के घर में जाकर हिन्दी बोलना सीख आए हैं।’’
‘‘प्रज्ञा डियर! मैं और भी बहुत कुछ सीख आया हूँ।’’
‘‘क्या-क्या सीखा है?’’
‘‘माता, पिता, दीदी और दादा।’’
‘‘तो एक दिन के लिए यह पर्याप्त है।’’
‘‘पर्याप्त के क्या मायने हैं?’’
‘‘एक दिन के लिए यह काफी है, उचित से अधिक है।’’
ज्ञानस्वरूप इस नए शब्द को स्मरण करने लगा।
प्रज्ञा ने पुनः कहा, ‘‘मैं अम्मी से पूछूंगी कि इनको निमंत्रण दूँ अथवा न?’’
‘‘रात के खाने के वक्त बात करेंगे।’’
परन्तु वे घर पहुँचे तो वहाँ चहल-पहल मची हुई थी। ज्ञानस्वरूप के वालिद शरीफ अब्दुल हमीद साहब और उनकी दूसरी दोनों बेगमें हमीदा और सालिहा तथा उन दोनों के सात बच्चे आए हुए थे।
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