उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘वे यहीं से आते हैं और यहीं को जाते हैं।’’
अब प्रज्ञा ने बात बदलने के लिए कहा, ‘‘पिताजी! परमात्मा कहीं भी रहे, उसको सब कुछ पता चलता रहता है। फरिश्तों के द्वारा अथवा किसी अन्य उपाय से, इसमें क्या अन्तर पड़ा जाता है? जब परमात्मा है और उसको सबका ज्ञान है, यह माना जाए तो हम आस्तिक ही हैं।
‘‘इसलिए मैं समझती हूँ कि यह आपके दामाद मुसलमान हैं अथवा ईसाई हैं, इससे क्या फरक पड़ता है? जब तक यह सच बोलते हैं, चोरी नहीं करते, शरीर मन और बुद्धि में सफाई रखते हैं तथा क्रोध नहीं करते, तब तक ये वहीं हैं जो दादा हैं, माताजी हैं अथवा आप हैं’’
इसने बात समाप्त कर दी। शिव ने पूछा, ‘‘और दीदी! अब फिर कब आओगी?’’
‘‘जब दादा अथवा माता-पिता बुलायेंगे?’’
‘‘दादा ने तो माता-पिता की मंजूरी से बुला लिया है। अब तुम्हें स्वयं आना चाहिए अथवा हमें अपने घर बुलाना चाहिए।’’
ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘शिव ठीक कहता है। प्रज्ञादेवी! अब आप इन सबको अपने घर बुलाइए।’’
‘‘तो अम्मी से पूछकर निमंत्रण दूँगी।’’
‘‘हाँ!’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘देखें! कब देती हो?
‘‘और हाँ, अपनी भाभी का मॉडल तुम ले आओ। जीजाजी इस नमूने की तुम्हारी भाभी लाने का वायदा कर चले हैं। इसलिए मुकाबला करने के लिए इसकी जरूरत पड़ेगी। यही विचार कर मैं दस हजार मील के अन्तर से इसे अपने साथ लाया हूँ।’’
सब हंसने लगे।
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