उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
मैत्रेयी की माता जी के रुग्ण होने का समाचार आने से एक सप्ताह पूर्व ही उसने अपना पूर्ण किया हुआ प्रबन्ध गाईड को दिया था और साइमन ने उसको पढ़, समझ, उस पर टिप्पणी लिखने के लिये कम-से-कम एक मास लगने का अनुमान लगाया था। यह भी सम्भव प्रतीत होता था कि वह प्रबन्ध के कुछ स्थलों को पढ़ अभी अधिक अन्वेषण के लिए कहे। उस अवस्था में उसके लिए आर्थिक कठिनाई उत्पन्न होने वाली थी। अभी तक तो भारत सरकार की छात्रवृत्ति के अतिरिक्त उसकी माँ भी कुछ सहायता भेजा करती थी।
छात्रवृत्ति की ‘ग्राण्ट’ समाप्त हो चुकी थी और फिर माँ से मिलने आने पर भी पर्याप्त धन व्यय हो चुका था।
उसने अपनी कठिनाई का वर्णन यशोदा से किया था और उसने इसमें सहायता करने का आश्वासन दिया था। यशोदा का कहना था, यह लन्दन चलकर हो जायेगा। तेज के पिता ने तेज की शिक्षा-दीक्षा में बहुत सहायता की है और यदि यह विचार सत्य हो गया कि तुम उनके परिवार का एक अंग ही बनोगी तब तो मेरी सिफारिश की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। स्वतः ही कठिनाई सुलझने लगेगी।’’
‘‘इसका तो आपने पहले भी संकेत किया था, परन्तु यह बात मैं सहायता से असम्बद्ध रखने के लिये कहूंगी। इसके विषय में मैंने अभी विचार भी आरम्भ नहीं किया। उसका अभी अवसर भी नहीं आया।’’
यशोदा मुस्करा रही थी। उसने कहा, ‘‘वह अवसर मैं तुम दोनों के हाव-भाव से समीप आ रहा अनुभव करती हूं। इसी कारण मैंने इसका संकेत किया है। अन्यथा तुम्हारा ऑक्सफोर्ड में अभी रह सकना और वहाँ अपने शोध-कार्य को जारी रखने का तो निश्चय ही समझो।’’
मैत्रेयी समझती थी कि जब से तेजकृष्ण पीकिंग से लौटा है तब से वह उसमें और उसके कार्य में रुचि लेता प्रतीत होता है। यह उसके माताजी के अनुमान का समर्थन ही करता है।
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