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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

मझली रानी

वे मेरे कौन थे? मैं क्या बताऊँ? वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे। होते भी तो कैसे? मैं ब्राह्मण, वे क्षत्रिय; मैं स्त्री, वे पुरुष। फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र। आह! यह क्या कह डाला मैंने! मित्र? भला किसी स्त्री का कोई पुरुष भी मित्र हो सकता है? और यदि हो भी तो क्या समाज इसे बर्दाश्त करेगा? यहाँ तो किसी पुरुष का किसी स्त्री से मिलना-जुलना या किसी प्रकार का व्यवहार रखना ही पाप है। और यदि कोई स्त्री किसी पुरुष से किसी प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है तो वह स्त्री पथभ्रष्टा है, चरित्रहीना है, नहीं तो पर-पुरुष से मिलने-जुलने का और मतलब ही क्या हो सकता है? खैर, न तो मुझे समाज से कुछ लेना-देना है, न समाज से कुछ सरोकार। समाज ने तो मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर दूर फेंक दिया है। फिर मैं ही क्यों समाज की परवाह करूँ।

मेरे माता-पिता साधारण स्थिति के आदमी थे। परिवार में माता-पिता के अतिरिक्त मुझसे बड़े मेरे तीन भाई और थे। मैं सबसे छोटी थी। छोटी होने के कारण घर में मेरा लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार में हुआ था। मेरे दो भाई बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और दोनों से छोटा राजन मैट्रिक में पढ़ रहा था। मेरे पिता जी संस्कृत के पूरे पंडित थे और पुरानी रूढ़ियों के कट्टर पक्षपाती। यहाँ तक कि वे मेरा विवाह नौ साल की ही उमर में करके गौरीदीन के अक्षय पुण्य के भागी बनना चाहते थे। कई लोगों के और विशेषकर मेरे भाइयों के विरोध के कारण ही वे ऐसा न कर सके थे।

जब मैं पाँचवीं अँग्रेजी में पढ़ रही थी और मेरी आयु चौदह साल के लगभग थी, तब मेरे माता-पिता को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। वे योग्य वर की खोज में थे ही कि संयोग से ललितपुर के तालुक़ेदार राजा राममोहन हमारे क़स्बे में शिकार खेलने के लिए आये। क़स्बे से लगा हुआ ही एक बड़ा जंगल था, जहाँ शिकार खेलने का अच्छा मौक़ा था। उनका ख़ेमा जंगल से बाहर क़स्बे के पास ही था। क़स्बेवालों के लिए यह एक खासा तमाशा—सा हो गया था। उनके तंबू में कभी ग्रामोफोन बजता और कभी नाच-गाना होता। लोग बिना पैसे के तमाशा देखने को झुंड के झुंड जमा हो जाते। एक दिन मैं भी राजन और पिता जी के साथ राजा साहब के डेरे पर गयी। मेरे पिताजी की राजा साहब से जान-पहचान हो ही गयी थी। हम लोग उन्हीं के पास जाकर कुर्सियों पर बैठ गये। राजा साहब ने हमारा बड़ा सम्मान किया। लौटते समय उन्होंने हम लोगों को अपनी ही सवारी पर भेजा और साथ में बहुत से फल मेवे और मिठाई इत्यादि भी रखवा दिये। कस्बे की कई लड़कियों और लड़कों ने मुझे राजा साहब की सवारी पर लौटते हुए उत्सुक नेत्रों से देखा। उस सवारी पर बैठकर मैं अनुभव कर रही थी कि जैसे मैं भी कहीं की रानी हूँ। मैंने उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखा।

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