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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

दूसरे दिन राजा साहब ने स्वयं पिताजी को बुलवा भेजा और उनसे मिलकर दो-तीन घंटे बाद जब पिताजी लौटे, तो इतने प्रसन्न थे कि उनके पैर धरती पर पड़ते ही न थे। ऐसा मालूम होता था कि वे सारे संसार को जीत कर आ रहे हैं। आते ही उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और वे माँ से बोले—लो, इससे अच्छा और क्या हो सकता था? तारा का विवाह राजा साहब के मँझले लड़के से तय हो गया।

माता-पिता दोनों ही इस सम्बन्ध से बड़े प्रसन्न हुए।

मेरे भाइयों ने जब सुना कि तारा का विवाह, एक तालुक़ेदार विलासी लड़के से, जो मामूली हिन्दी-पढ़ा लिखा है, तय हुआ है, तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया। किन्तु उनका विरोध कौन सुनता था। पिता जी तो अपना हठ पकड़े थे, उनकी समझ में इससे अच्छा घर और वर मेरे लिए कहीं मिल ही न सकता था? सबसे अधिक आकर्षक बात तो उनके लिए यह थी कि वर बहुत बड़े खानदान, बीस विस्वे कनौजियों के घर का लड़का था। फिर राजा से रिश्तेदारी करके कस्बे में उनकी इज्जत बढ़ न जायगी क्या? इसके अतिरिक्त, विवाह का प्रस्ताव भी तो स्वयं राजा साहब ने ही किया था। नहीं तो भला मामूली हैसियत के मेरे पिता जी यह प्रस्ताव कैसे ला सकते थे? सबसे बढ़कर बात तो यह थी कि दहेज के नाम से कुछ न देकर भी लड़की इतने बड़े घर में ब्याही जाती थी! फिर भला इन बड़े-बड़े आकर्षणों के होते हुए भी पिता जी इस प्रस्ताव को कैसे टाल देते?

पिताजी मेरी किस्मत की सराहना करके कहते, मेरी तारा तो रानी बनेगी।

रानी बनने की खुशी में मैं फूली-फूली फिरती थी। भाइयों का विरोध करना, मुझे अच्छा न लगता, किन्तु मैं उनके सामने कुछ कह न सकती थी। खैर, भाइयों के बहुत विरोध करने पर भी मेरा विवाह मँझले राजा मनमोहन के साथ हो ही गया।

फूलों से सजी हुई मोटर पर बैठ कर मैं ससुराल के लिए रवाना हुई। हमारे कस्बे और ललितपुर के बीच में केवल सत्ताइस मील का अन्तर था; इसलिए बरात मोटरों से ही आयी और गयी थी। जीवन में पहली ही बार मोटर पर बैठी थी। मुझे ऐसा मालूम होता कि जैसे मैं हवा में उड़ी जा रही हूँ। सत्ताइस मील तक मोटर पर बैठने के बाद भी जी न भरा था। यही सोचती थी कि रास्ता लम्बा होता जाय और मैं मोटर पर घूमा करूँ। किन्तु यह क्या सम्भव था? आखिर को एक बड़े भारी महल के जनाने दरवाजे पर मोटर जाकर खड़ी हो गयी। सास तो थी ही नहीं, इसलिए मेरी जिठानी बड़ी रानी जी परछन करके मुझे उतार ले गयीं। मुझे एक बड़े भारी सजे हुए कमरे में बिठाल दिया गया, और स्त्रियाँ बारी-बारी से मुंह खोल के देखने लगीं। कोई रुपया कोई छोटे-छोटे जेवर या कपड़े मेरी मुँह-दिखाई में दे देकर जाने लगीं। मेरी जिठानी बड़ी रानी ने भी मेरा मुँह देखा, कुछ बोली नहीं, ‘ऊँह’ करके मेरी अँगुली में अँगूठी पहना दी।

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