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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

मैंने सुना कि पास ही के किसी कमरे में किसी से कह रही थीं—देखा बहू को? क्या तारीफ के पुल बँध रहे थे? ससुरजी के कहने से तो बस यही मालूम होता था कि इन्द्र की अप्सरा ही होगी! पर न रूप न रंग, न जाने क्यों सुन्दर कह-कह के कँगले की बेटी ब्याह के अपनी इज्जत हलकी की। रोटी-बेटी का व्यवहार तो अपनी बराबरी वालों ही में होता है, बिरजू की माँ। पर ससुर जी तो इसके रूप पर बिलकुल लट्टू ही हो गये थे। मैं सुन्दर नहीं हूँ तो क्या मुझे सुन्दरता की परख भी नहीं है? न जाने कितने सुन्दरियाँ देखी हैं, यह तो उनके पैरों की धूल के बराबर भी न होगी। मालूम होता है, उमर के साथ-साथ ससुरजी की आँखें भी सठिया गयी हैं; मँझले राजा को डुबो दिया।

बिरजू की माँ उनकी हाँ में हाँ मिलाती हुई बोलीं—सुन्दर तो है रानी जी! जैसी आप लोग हैं वैसी ही है, पर अभी बच्चा है। जवान होगी तो रूप और निखर आयेगा।

बड़ी रानी तिलमिला उठीं और बोलीं—रूप निखरेगा पत्थर! होनहार बिरवान के होत चीकने पात। निखरने वाला रूप सामने ही दीखता है।

फिर वे ज़रा विरक्ति के भाव से बोलीं—उँह, जाने भी दो, अच्छा हो या बुरा हमें करना ही क्या है?

जब मैं वहाँ अकेली रह गयी, सब औरतें चली गयीं तो मेरी माँ के घर की खवासन ने, सूना कमरा देखकर, मेरा मुँह खोल दिया। शीशा उठाकर मैंने एक बार अपना मुँह ध्यान से देखा, फिर रख दिया। ढूँढ़ने से भी मुझे अपने रूप-रंग में कोई ऐब न मिला। पहली बार केवल पाँच दिन ससुराल रहकर मैं अपने पिता के साथ मायके आ गयी। ससुराल के पाँच दिन मुझे पाँच वर्ष की तरह मालूम हुए। मैंने जो रानीपने का सुनहला सपना देखा था, वह दूर हो चुका था। ससुराल से लौटकर मैंने तो कुछ नहीं कहा, किन्तु खवासन ने वहाँ के सब हाल-चाल बतलाये। माँ ने कहा—तो क्या रानी केवल कहने ही के लिए होती हैं? भीतर का हाल हमारे घरों से भी गया-बीता होता है?

मैं अपनी माँ के साथ मुश्किल से महीना-सवा-महीना ही रह पायी थी कि मुझे बुलाने के लिए ससुराल से सन्देशा आया। राजाओं की इच्छा के विरुद्ध तिलभर भी मेरे पिताजी कैसे जाते? न चाहते हुए भी, उन्हें मेरी बिदाई करनी ही पड़ी। इतनी जल्दी ससुराल जाना मुझे जरा भी अच्छा न लगा; परन्तु क्या करती, लाचार थी। सावन में जब कि सब लड़कियाँ ससुराल से मायके आती हैं, मैं ससुराल रूपी कैदख़ाने में बन्द होने चली। देवर के साथ फिर मोटर पर बैठी। इस बार मैंने अपना छोटा-सा हारमोनियम भी साथ रख लिया था।

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