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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

फिर ससुराल पहुँची। पहली बार तो मेरे साथ माँ के घर की खवासन थी, इस बार उस हारमोनियम और थोड़ी-सी पुस्तकों को छोड़कर, कोई न था। मेरा जी एक कमरे में चुपचाप बैठे-बैठे घबराया करता। घर में कोई ऐसा न था जिससे घंटे-दो-घंटे बातचीत करके जी बहलाती। केवल छोटे राजा, मेरे देवर की बातें मुझे अच्छी लगती थीं। किन्तु वे भी मेरे पास कभी-कभी, और अधिकतर बड़ी रानी की नज़र बचाकर ही आते थे। मैं सारे दिन पुस्तकें पढ़ा करती, पर पुस्तकें थी ही कितनीं? आठ-दस दिनों में सब पढ़ डालीं। यहाँ तक कि एक-एक पुस्तक दो-दो, तीन-तीन बार पढ़ी गयी। छोटे राजा कभी-कभी मुझे अखबार भी ला दिया करते थे किन्तु सबकी आँख बचाकर।

घर में सब काम के लिए नौकर-चाकर और दास-दासियाँ थीं। मुझे घर में कोई काम न करना पड़ता था। मेरी सेवा में भी दो दासियाँ सदा बनी रहती थीं पर मुझे तो ऐसा मालूम होता था कि मैं उनके बीच में कैद हूँ, क्योंकि मेरी राई-रत्ती भी बड़ी रानी के पास लगा दी जाती थी। उन दासियों में से यदि मैं किसी को किसी काम से कहीं भेजना चाहती तो मेरे कहने मात्र से ही कहीं न जा सकती थीं, उन्हें बड़ी रानी से हुक्म लेना पड़ता था। यदि उधर से स्वीकृति मिल जाती तो मेरा काम होता अन्यथा नहीं। इसी प्रकार हर माह मुझे १५०) खज़ाने से हाथ-खर्च के लिए मिलते थे; किन्तु क्या मजाल कि उसमें से एक पाई भी महाराजा से पूछे बिना खर्च कर दूँ। भीतर के शासन की बागडोर बड़ी रानी के हाथ में थी, और बाहर की महाराजा मेरे ससुर के हाथ में थी। मेरे पति मँझले राजा, बड़े ही विलासप्रिय, मदिरा-सेवी, शिकार के शौकीन और न जाने क्या थे, मैं क्या बताऊँ! वे बहुत सुन्दर भी थे। किन्तु उनके दर्शन मुझे दुर्लभ थे। चार-छै दिन में कभी घंटे-आध घंटे के लिए वे मेरे कमरे में आ जाते तो मेरा अहोभाग्य समझो। उनकी रूप-माधुरी को एक बार जी-भर के पीने के लिए मेरी आँखें आज तक प्यासी हैं किन्तु मेरे जीवन में वह अवसर कभी न आया।

इस दिखावटी वैभव के अन्दर मैं किसी प्रकार अपने जीवन को घसीटे जा रही थी। इसी समय मेरे अंधकारपूर्ण जीवन में प्रकाश की एक सुनहली किरण का आगमन हुआ।

छोटे राजा की उमर सत्रह-अठारह साल की थी। वे बड़े नेक और होनहार युवक थे। घर में पढ़ने-लिखने का शौक केवल उन्हीं को था। छोटे राजा मैट्रिक की तैयारी कर रहे थे और एक मास्टर बाबू उन्हें पढ़ाया करते थे। घर में आने-जाने की उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता थी। घर में स्त्रियों की आवश्यक वस्तुएँ बाहर से मँगवा देना भी मास्टर बाबू के ही जिम्मे था। इसलिए वे घर में सबसे खूब ही ज्यादा परिचित थे।

विवाह के बाद से ही बड़ी रानी मुझसे नाराज थीं। उन्हें मेरी चाल-ढाल, रहन-सहन ज़रा भी न सुहाती। हर बात में मेरे ऐब ढूँढ़ निकालने की फ़िराक में रहतीं। तिल का ताड़ बनाकर, मेरी ज़रा-ज़रा सी बात को वे परिचित या अपरिचित, जो कोई भी आता उससे कहतीं। शायद वे मेरी सुन्दरता को मेरे ऐबों से ढँक देना चाहती थीं। वही बात उन्होंने मास्टर बाबू के साथ भी की। वे तो घर में रोज़ ही आते थे, और रोज़ उनसे मेरी शिकायत होने लगी। किन्तु इसका असर उल्टा ही हुआ। मैंने देखा, तिरस्कार की जगह मास्टर बाबू का व्यवहार मेरे प्रति अधिक मधुर और आदरपूर्ण होने लगा।

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