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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

छोटे राजा को मेरा गाना बहुत अच्छा लगता। वे बहुधा मुझसे गाने के लिए आग्रह करते। मुझे तो अब गाने-बजाने की और कोई विशेष रुचि न रह गयी थी; किन्तु छोटे राजा के आग्रह से मैं अब भी कभी-कभी गा दिया करती थी। एक दिन की बात है। जाड़े के दिन थे किन्तु आकाश बादलों से फिर भी ढँका था। मैं अपने कमरे में बैठी एक मासिक पत्रिका के पन्ने उलट रही थी। इतने में छोटे राजा आये और मुझसे बोले, मँझली भाभी कुछ गाकर सुनाओ।

मैंने बहुत टाल-मटोल की किन्तु छोटे राजा न माने, बाजा उठाकर सामने रख ही तो दिया। मैंने हारमोनियम पर गीत गोविन्द का यह पद छेड़ा—

बिहरत हरिरिह सरस बसन्ते
नृत्यति युवति जनेन् समं विरहिजनस्य दुरन्ते।
ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे।
मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजति कुंज कुटीरे।

मास्टर बाबू भी, न जाने कैसे और कहाँ से आये और पीछे चुपचाप खड़े हो गये। छोटे राजा की मुस्कराहट से मैं भाँप गयी। पीछे फिरकर जो उन्हें देखा तो हारमोनियम सरका कर मैं चुपचाप बैठ गयी। वे भी हँसकर वहीं बैठ गये। बोले—मँझली रानी! आप इतना अच्छा गा सकती हैं, मैंने आज ही जाना।

छोटे राजा—अच्छा न गाती होतीं तो क्या मैं मूर्ख था, जो इनके गाने के पीछे अपना समय नष्ट करता?

इधर यह बातें हो रही थीं कि दूसरी तरफ़ से पैर पटकती हुई बड़ी रानी कमरे में आयीं और क्रोध से बोलीं—यह घर तो अब भले आदमी का घर कहने लायक रह ही नहीं गया है। लाज-शरम तो सब जैसे धो के पी ली हो। बाप रे बाप! हद हो गयी! जैसे हल्के घर की है, वैसी ही हल्की बातें यहाँ भी करती है! पास-पड़ोस वाले सुनते होंगे तो क्या कहते होंगे? यही न, कि मँझले राजा की रानी रंडियों की तरह गा रही है। बाबा! इस कुल में तो ऐसा कभी नहीं हुआ : कुल को तो न लजवाओ देवी! बाप के घर जाना तो भीतर क्या, चाहे सड़क पर गाती फिरना। किन्तु यहाँ यह सब न होने पावेगा। तुम्हें क्या? घर के भीतर बैठी-बैठी चाहे जो कुछ करो, वहाँ आदमियों की तो नाक कटती है!

एक साँस में इतनी सब बातें कहके बड़ी रानी चली गयीं।

मैंने सोचा, शराब पीकर रंडियों की बाँह में बाँह डाल कर टहलने में नाक नहीं कटती! गरीबों पर मनमाने जुल्म करने पर नाक नहीं कटती। नाक कटती है मेरे गाने से, सो अब मैं बाजे को कभी हाथ ही न लगाऊँगी। उस दिन से मैंने फिर बाजे को कभी नहीं छुआ और न छोटे राजा ने ही कभी मुझसे गाने का आग्रह किया। यदि वे आग्रह करते, तब भी मुझमें बाजा छूने का साहस न था।

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