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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

होली

—कल होली है।

—होगी।

—क्या तुम न मनाओगी?

—नहीं?

—न।

—क्यों?

—क्या बताऊँ क्यों?

—आखिर कुछ सुनूँ भी तो।

—सुनकर क्या करोगे?

—जो करते बनेगा।

—तुमसे कुछ भी न बनेगा।

—तो भी।

—तो भी क्या कहूँ? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्यौहार वही मनाता है जो सुखी है। जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख नहीं, वह त्यौहार भला किस बिरते पर मनाये?

—तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊँ?

—क्या करोगे आकर?

सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठा कर घर चल दिया। करुणा अपने घर के काम-काज में लग गयी।

नरेश के जाने के आध घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया। उनकी आँखें लाल थीं। मुँह से शराब की तेज बदबू आ रही थी। जलती हुई सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए, वे कुरसी खींच कर बैठ गये। भयभीत हरिणी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा—दो दिन तक घर नहीं आये, क्या कुछ तबियत खराब थी? यदि न आया करो तो खबर तो भिजवा दिया करो। मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूँ।

उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया। जेब से रुपये निकाल कर मेज पर ढेर लगाते हुए बोले—पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पियो, यह न करो, वह न करो। यदि मैं जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपये इकट्ठे कहाँ से मिल जाते? देखो, पूरे पन्द्रह सौ हैं। लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझसे बिना पूछे इसमें से एक पाई भी खर्च न करना, समझीं!

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