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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी। गरीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था, परन्तु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था। वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी; इसलिए अपने स्वतन्त्र विचार वह कभी भी प्रकट नहीं कर सकती थी। उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था। अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था। यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अपने अन्दर दबा कर जबान से बोली—रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े हैं।

करुणा के इस उत्तर से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज़ से पूछा—क्या कहा?

करुणा कुछ न बोली, नीची नज़र किये हुए आटा सानती रही। इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा ११० पर पहुँच गया। क्रोध के आवेश में रुपये उठा कर उन्होंने अपनी जेब में रख लिये—यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने आ गया होगा। ऊट-पटांग बातें भूल गयी होगी, परन्तु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वता पर घमंड है तो मुझे भी कुछ है। लो, जाता हूँ। अब रहना सुख से। कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।

पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली—रोटी तो खा लो! मैं रुपये रख लेती हूँ। क्यों नाराज़ होते हो?

एक ज़ोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिये। झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया। खून की धारा बह चली, साड़ी और जाकेट लाल हो गयी।

संध्या का समय था। पास ही बाबू भगवतीप्रसाद जी के सामने वाली चौक से सुरीली आवाज़ आ रही थी :

होली कैसे मनाऊँ?
सैंया विदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, कर मल-मल पछताऊँ।

होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गाने वाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी। जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का ख्याल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सबसे पहिला नम्बर था, इधर करुणा भूखी-प्यासी, छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी।

‘भाभी, दरवाजा खोलो’—किसी ने बाहर से आवाज़ दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी। उसने साश्चर्य पूछा—भाभी, यह क्या?

करुणा की आँखें छलछला आयीं। उसने रुँधे हुए कंठ से कहा—यही तो मेरी होली है, भैया !

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