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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

तीन दिन बाद विश्वमोहन लौटे। जाने के पहिले उनमें और सोना में जो बातचीत हुई थी, वे उसे प्रायः भूल से गये थे। सोना के लिए अच्छी सी साड़ी, एक जोड़ी पैरों के लिए सुन्दर से स्लीपर और कुछ हेयर क्लिप लिये हुए वे घर आये, किन्तु सामने ही चबूतरे पर उन्हें फैजू बैठा हुआ मिला। पास ही हरी-हरी घास पर वह अपना तीतर चुगा रहा था। विश्वमोहन उसे देखते ही तिलमिला-से उठे। संदेह और भी गहरा हो गया। सारी बातें ज्यों-की-त्यों फिर ताज़ी हो गयीं। उनका हृदय बड़ा विचलित और व्यथित हुआ, न जाने कितने प्रकार की शंकाएँ उन्हें व्याकुल करने लगीं। उनका चेहरा फिर गंभीर हो गया। घर आकर वे सोना से एक बात भी न कर सके। माँ से एक-दो बातें कर, बिना भोजन किये ही वे आफिस चले गये। सोना से यह उपेक्षा न सही गयी। पिछले तीन दिन से वह खिड़की दरवाजों के पास भी न गयी थी, और उसने यह निश्चय कर लिया था कि अब वह कभी भी खिड़की-दरवाज़ों के पास न जायगी। विश्वमोहन की इस उपेक्षा ने उसके हृदय के घाव को और भी ज्यादा गहरा कर दिया। अब इससे अधिक न सह सकती थी। अपने जीवन को समाप्त करने का उसे कोई साधन न मिला, आँगन में लगे हुए धतूरे के पेड़ से उसने दो-तीन फल तोड़ लिये और पीस कर पी गयी। कुछ ही क्षण बाद सोना के हाथ-पैर अकड़ने लगे। उसकी जबान ऐंठ गयी और चेहरा काला पड़ गया। वह देखती थी किन्तु बोल न सकती थी। इसी समय तिवारी जी आ पहुँचे। वे सोना को विदा कराने आये थे। सोना पिता को देखकर बहुत रोयी। सारे घर में कुहराम मच गया और देखते ही देखता सोना के प्राण पखेरू उड़ गये। यह ऐसी नींद थी जिसने सोना को सदा के लिए शान्ति दे दी। अपवादों की विषैली वायु अब उसे छू भी न सकती थी।

शाम को छै बजे विश्वमोहन आफिस से लौटे। घर में रोने की आवाज सुनकर किसी अज्ञात आशंका से उनका हृदय विचलित हो उठा। घर में आकर देखा, तिवारी जी कन्या की लाश को गोद में लिये हुए धाड़ें मार-मार कर रो रहे हैं। तिवारी जी इस बीच कई बार कन्या को लेने आ चुके थे, किन्तु विश्वमोहन ने विदा न किया था। विश्वमोहन और तिवारी जी में कोई विशेष बातचीत न हुई, अंतिम संस्कार की तैयारी होने लगी। अंतिम संस्कार के बाद विश्वमोहन लौटे तो मेज़ पर उन्हें सोना का पत्र मिला—

‘‘मेरे देवता! मैं मर रही हूँ। मरने वाले झूठ नहीं बोला करते। आज तो अंतिम बार विश्वास कर लेना—मैं निर्दोष थी। मुझे ऐसा लगता है यह दुनिया मेरे लायक नहीं है या मैं ही इस दुनिया के योग्य नहीं हूँ। इस छल-कपट से परिपूर्ण संसार में मुझे भेजकर शायद विधाता ने उचित नहीं किया था। आप मेरी एक कठिनाई और भी शायद नहीं समझ सके; एक वातावरण से सहसा दूसरे वातावरण में अपने को शीघ्र ही अनुकूल बना लेने में असमर्थ थी। अपने मरने का मुझे कोई अफसोस नहीं; दुःख है तो केवल इतना कि मैं आपको कभी सुखी न कर सकी।

— अभागिनी सोना’’

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