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बिखरे मोती

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7135
आईएसबीएन :9781613010433

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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ

आहत अपमान से सोना तड़प उठी। वह कटे हुए वृक्ष की भाँति खाट पर गिर पड़ी, रोयी। रो लेने के बाद उसका जी कुछ हल्का हुआ। उसे अपने गाँव का स्वच्छन्द जीवन याद आने लगा। देहाती जीवन की सुखद स्मृतियाँ एक-एक करके सुकवि की सुन्दर कल्पना की भाँति उसके दिमाग में आने लगीं। उसे याद आया, किस प्रकार जाड़े के दिनों में अलाव के पास न जाने कितनी रात तक, बूढ़े, जवान, युवतियाँ और बच्चे सब एक साथ बैठकर आग तापते हुए पहेलियाँ बुझाते और किस्से-कहानियाँ कहा करते थे। किसी के साथ किसी प्रकार का बन्धन न था। नदी पर गाँव भर की बहू-बेटियाँ कैसे स्नान करने को जाती थीं और फिर सब एक साथ गाती हुई लौटती थीं। कितना सुखमय जीवन था वह। चने के खेत में नर्म-नर्म चने की भाजी तोड़कर सब एक साथ ही किस प्रकार खाया करते थे और कभी-कभी छीना-झपटी भी हो जाया करती थी। हँसी-मजाक भी खूब होता था किन्तु वहाँ किसी को कुछ शिकायत न थी। अपने पड़ोसी कुंदन के लिए वह माँ से लड़-भिड़कर भी मिठाई ले जाया करती थी। नदी पर नहाने के बाद कभी-कभी कुंदन उसकी धोती भी तो धो दिया करता था; किन्तु वहाँ तो इसकी कभी चर्चा भी नहीं हुई। क्रोशिये से एक सुन्दर-सा पोत का बटुआ बना कर सबके सामने ही तो उसने कुंदन को दिया था जो अब तक उसके पास रखा होगा पर वहाँ तो इस पर किसी को भी बुरा न लगा था। वहाँ सबसे बोलने, बात करने की स्वतन्त्रता थी। कुंदन की भाभी नयी-नयी तो ब्याह के आयी थी, पर हम लोगों के साथ ही रोज नदी नहाने जाया करती थी और साथ बैठ कर झूला भी झूला करती थी, अलाव के पास भी बैठा करती थी। फिर मैंने कौन-सा ऐसा पाप कर डाला, जिसके कारण इन्हें शहर में सर उठाने की जगह नहीं रही। यदि किसी का कुछ काम कर देना, बोलना या बातचीत करना ही पाप है, तो कदाचित यह पाप जाने-अनजाने मुझसे सदा ही होता रहेगा। मेरे कारण उन्हें पद-पद पर लांछित होना पड़े, तो मेरे इस जीवन का मूल्य ही क्या है? ऐसे जीवन से तो मर जाना अच्छा है। मैं घर के अन्दर परदे में नहीं बैठ सकती, यही तो मेरा अपराध है न? इसी के कारण तो लोग मेरे आचरण तक में धब्बे लगाते हैं? मैं लोगों से अच्छी तरह बोलती हूँ—प्रेम का व्यवहार रखती हूँ। यही तो मुझमें बुराई है न? आज उन्हें मुझ पर क्रोध आया; उन्होंने तिरस्कार के साथ मुझे झिड़क दिया। इसमें उनका कोई कसूर नहीं है। पत्थर के पाट पर भी रस्सी को रोज़-रोज़ के घिसने से निशान पड़ जाते हैं, फिर वे तो देवतुल्य पुरुष हैं। उनका हृदय तो कोमल है, इन अपवादों का असर कैसे न पड़ता? रामचन्द्र जी सरीखे महापुरुष ने भी तो ज़रा सी ही बात पर गर्भवती सीता को वनवास दे दिया था, फिर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं। इन्होंने तो जो कुछ कहा ठीक ही कहा। पर इसमें मेरा भी कौन-सा दोष है? किन्तु जब इन्हीं के हृदय में सन्देह ने घर कर लिया तो मैं जीती हुई भी मरी से गयी-बीती हूँ। इसी प्रकार अनेक तरह के संकल्प-विकल्प सोना के मस्तिष्क में आये और चले गये।

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